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________________ (५४०) कल्याणकारके देखें तो शीघ्र मृत्युमुखपर जाता है । अब विस्तृत रोगसमूहों के भेद को जाननेवालों के लिये अत्युकृष्ट सुख व अभ्युदय के हेतुभूत शुभस्वप्नों को कहेंगे ॥ ३६॥ .... शुभस्वप्न. पंचगुरून्गुरूनरपतीन्वरषोडशजैनसंभव- । स्वप्नगणान्जिनेंद्रभवनानि मनोहरमित्रबांधवान् । नदीसमुद्रजलसंतरणोन्नतशैलवाजिसद्वारणा-। रोहणान्यपि च सौख्यकराण्यधिपश्यतां नृणाम् ।। ३७ ॥ . . . भावार्थ:-जोग रोगी स्वप्न में पंचपरमेष्ठी, अपने गुरु, राजा, जिनेंद्र शासन में बतलाये हुए सोलह स्वप्म, जिनेंद्रमंदिर, सुंदर मित्र बांधव आदि को देखता हो एवं अपनेको नदी समुद्र को पार करते हुए, उन्नत पर्वत, सुंदर घोडा व हाथीपर चलते हुए देखता हो यह सब शुभ चिन्ह हैं । रोगीके लिये सुखकर हैं ॥ ३७॥ अन्य प्रकार के अरिष्टलक्षण. मर्म उपद्रवान्वितमहामयपीडितमुग्रमर्मरो-। . गव्यथितांगयष्टिमथवा तमीतसमस्तवेदनम् ॥ त्यक्तनिजस्वभावमसितद्विजतद्रसनोष्ठनिष्ठुरं । स्तब्धनिमग्नरक्तविषमेक्षणमुद्गतलोचनं त्यजेत् ॥ ३८ ॥ - भावार्थ:-जो मर्म के उपद्रव स्ने संयुक्त महामय पीडित है, भयंकर मर्मरोगसे प'कुलित है, जिस की समस्तवेदनायें अपने आप अकस्मात् चिकित्साके विना शांत होगयी हों, शरीरका वास्तविकस्वभाव एकदम बदल गया हो, दांत काले पडगये हों, जीभ व ओंठ काली व कठिन होगयी हों, आंखें स्तब्ध [ जकडजाना ] निमग्न ( अंदर की ओर घुसजाना ) लाल व विषम होगई हों अथवा आंखे उभरी हुई हो, ऐसे रोगीकी चिकित्सा न कर के छोड देना चाहिये । अर्थात् ये उस रोगी के मरण चिन्ह हैं । इन चिन्हों के प्रकट होनेपर रोगी का मरण अवश्य होता है ॥ ३८॥ पश्यति सर्वमेव विकृताकृतिमार्तविशेषशद्वजाति। विकृति श्रुणोति विकृति परिजिघ्रति गंधमन्यतः ॥ . सर्वरसानपि स्वयमपेतरसो विरसान्ब्रवीति यः। स्पर्शमरं न वेत्ति विलपत्यबलस्तमपि त्यद्भिषक् ।। ३९ ॥ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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