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________________ (4) - - उस में मिलता है, उसे देखकर मन दंग रहता है । मूढगर्भ व शल्यहरण के भिन्न २ विधानोंका वर्णन है, इतना ही नहीं, पेट को चीरकर बच्चेको बाहर निकालना व फिरसे उस गर्भाशय को सीकर सुरक्षित करने का कटिन विधान भी सुश्रत में है । नेत्ररोग के प्रति ही अनेक प्रकार के शस्त्रकर्मों का विधान सुश्रुतने बहुत अच्छी तरह से किया है । कल्याणकारक ग्रंथ में शस्त्रकर्म का बहुतसा भाग आया है। अष्टविधशस्त्रकर्म व उन के विधान भी कल्याणकारक में सुव्यवस्थितरूपसे वर्णित है । शस्त्रचिकित्सा अत्यंत उपयोगी चिकित्सा होने से महाभारतादि ग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है । भीष्म जिस समय शरपंजर में पडा था, उस समय शल्योद्धरण-कोविदों को बुलाने का उल्लेख महाभारत में है । सारांश है कि आयुर्वेद में शल्यचिकित्सा बहुत उत्तम पद्धति से दी गई है एवं उस का प्रचार प्रत्यक्ष व्यवहार में इस भारत में कुछ समय पूर्वतक बराबर था । जैनाचार्योंने खासकर कल्याणकारककर्ताने शल्यतंत्रका वर्णन अपने ग्रंथ में अच्छीतरह किया है । परन्तु कायचिकित्साके सम्बन्धमें अधिकरूपसे रस शास्त्रोंका उपयोग व उसकी प्रथा इन्ही जैनशास्त्रकारोंने डाल दी है । चरक, मुश्रुत के समय में वनस्पति व प्राण्यंग को औषधिके रूपमें बहुत उपयोग करते थे। परन्तु यह प्रथा अनेक कारणांसे पीछे पडकर रस, लोह ( Metals) उपधातु, [ गंधक, माक्षिकादि ] व वनस्पतिक कल्प चिकित्सा में अधिक रूपसे उपयोग में आने लगे, और शल्यतंत्र धीरे धीरे पीछे पडने लगा। ___ यवनोंके आक्रमणपर्यंत आयुर्वेद का परिपोष बराबर बना था । आर्य, जैन व बौद्ध मुनियों ने इस के आठो ही अंगों के संरक्षण के लिए काफी प्रयत्न किया। परन्तु यावनी आक्रमण के बाद वह कार्य नहीं हो सका । इतना ही नहीं, बडे २ विद्यापीठ व अग्रहारोंके ग्रंथालयोंको विध्वंस करने में भी यवनोंने कोई कमी नहीं रखखी । इतिहासप्रसिद्ध अल्लाऊद्दीन खिलजी जिस समय दक्षिण पर चढाई करते हुए आया था, उस समय अनेक पुस्तकालयों को जलाने का उल्लेख इतिहास में मिलता है । आयुर्वेदशास्त्र को व्यवस्थितरूप से बढ़ने के लिए जिस मानसिक-शांति की आवश्यकता होती है, वह इस के बाद के सहस्रक में विद्वानोंको नहीं मिली। कोई फुटकर निबंधग्रंथ अथवा संग्रहग्रंथ इस काल में लिखे गए । परन्तु उन में कोई नवीनता नहीं है। यह जो आघात आयुर्वेद पर हुआ उसकी सुधारणा विशेषतः मराठेशाही में भी नहीं हो सकी । और उस के बाद के राजावों को तो अपने स्वतः के सिंहासन को सम्हालते सम्हालते ही हैरान होना पडा । और आखेर के राजाओंने तो पलायन ही किया। इस प्रकार इस भारतीय आयुर्वेद के उद्धार के लिए राज्याश्रय नहीं मिला। हां! नहीं कहने के लिए श्रीमंत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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