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नाना साहेब पेशवे ने अपने शासन में एक हकीम व एक गुर्जर वैद्य को थोडा वर्षासन: देने का उल्लेख मिलता है। यह सहायता शास्त्रसंवर्धन की दृष्टि से न कुछ के बराबर थी । चंद्रगुप्त व अशोक के काल में उन्होंने अपने राज्य में जगह २ पर रुग्णालय व बडे २ औषधालयों का निर्माण कराया था। इसीलिए उस समय अष्टांग आयुर्वेद की अत्यंत उन्नति हुई ।
काय, बाल, ग्रह, ऊर्ध्वाग, शल्य, दंष्ट्रा, जरा व वृष, इस प्रकार आठ अंगों से चिकित्सा का वर्णन आयुर्वेद में किया गया है। कल्याणकारक ग्रंथ में भी इन आठ
अंगों से चिकित्साका प्रतिपादन किया गया है। कायचिकित्सा-संपूर्ण धातुक शरीर की चिकित्सा ! बालचिकित्सा---- बालकों के रोग की चिकित्सा । ग्रहचिकित्सा- इस का अर्थ अनेक प्रकार से हो सकता है । परन्तु वे सर्व रोग सहस्रार व नाडीचक्र में दोषोत्पन्न होने से होते हैं। ऊोगचिकित्सा-इसे शालाक्यचिकित्सा भी कहते हैं। नाक, कान, गला, आंख, इन के रोगों की चिकित्सा ऊवांगचिकित्सा कहलाती है । शल्यचिकित्सा-शस्त्रास्त्रों से की जानेवाली चिकित्सा जिसका वर्णन ऊपर कर चुके हैं। दंष्ट्राचिकित्सा-इस के दो भाग हैं। [१] सर्पादि विषजंतुओं के द्वारा दंष्ट्र होनेपर उसपर कीजानेवाली चिकित्सा । [२] स्थावर, जंगम विष के किसी प्रकार शरीर में प्रवेश होनेपर कीजानेवाली चिकित्सा। जराचिकित्सा-पुनयौवन प्राप्त करने के लिए की जानेवाली चिकित्सा । इसे ही रसायनचिकित्सा के नाम से कहते हैं । वृषचिकित्सा-का अर्थ वाजीकरण चिकित्सा है।
इन चिकित्सांगोंका सांगोपांगवर्णन कल्याणकारकमें विस्तारके साथ आया है। अतएव उसके संबंध में यहांपर विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं । मुख्य प्रश्न यह है कि आयुर्वेद की चिकित्सापद्धति किस तत्वके आधार पर अवलंबित है ? किसी भी वैद्यक को लिया तो भी उसके मूल में यह उपपत्ति अवश्य रहेगी कि शरीर सुस्थिति में किस प्रकार चलता है, और रोग के होनेपर उसकी अव्यवस्थिति किस प्रकार होती है ? आज ही नाना प्रकार के वैद्यकोंकी उपलब्धि इस भूमंडलपर हुई हो यह बात नहीं, अपितु बहुत प्राचीन काल से ही अनेक वैद्यकपंथ विद्यमान थे। शरीर त्रिधातुओं से बना हुआ है और उस में दोष, धातु व मलमूल है । [ दोषधातुमलमूलं हि शरीरम् ] त्रिधातु शरीर के धारण पोषण करते हैं। वे समस्थिति में रहें तो शरीर में स्वास्थ्य बना रहता है। एवं उनका वैषम्य होनेपर शरीर बिगडने लगता है । " य एव देहस्य समा विवृध्यै
१ यह चंद्रगुप्त जैनधर्म का उपासक था। जैनाचार्य भद्रबाहु का परमभक्त था। जैनधर्म में कथित उत्कृष्ट महाव्रतको धारण कर उसने संन्यास ग्रहण किया था। See. Inscriptions of Shravanbelgola.
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