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कल्याणकारके
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अथ पंचविंशतितमः परिच्छेदः
मंगलाचरण. प्रणिपत्य जिनेद्रमिंद्रसन्मुनिश्रृंदारकवृंदवंदितम् ।
तनुभृत्तनुतापनोदिनः कथयाम्यल्पविकल्पकल्पकान् ॥ १॥ भावार्थः-मुनिनाथ, गणधर, देवेंद्र आदियों के द्वारा पूज्य श्री जिनेंद्र को नमस्कार कर प्राणियों के शरीरतापको दूर करनेवाले कल्पों के कुछ विकल्पों [ भेद ] को कहेंगे ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥ ॥
प्रतिज्ञा. प्रथमं ह्यभयाविकल्पकं मनुजानामभयप्रदायकम् ।
विधिवत्कथयाम्यतः परं परमोद्योगरतो नृणामहम् ॥ २ ॥ भावार्थ:-सब से पहिले हम बहुत प्रयत्न पूर्वक हरीतको कल्प को शास्त्रोक्त विधिपूर्वक कहेंगे जो मनुष्योंको अभय प्रदान करनेवाला है ॥ २ ॥
हरीतकी प्रशंसा. अभया ह्यभया शुभमदा सतताभ्यासवशादसायनम् ।
लवणैर्विनिहत्यथानिलं घृतयुक्ता खलु पित्तमद्भुतम् ॥ ३ ॥ भावार्थ:- अभया [ हरडा ] सचमुच में अभया ही है, सुख देनेवाली है। सतत अभ्यास रखें तो वह रसोंकी वृद्धि के लिये रसायन के समान ही है । उसका उपयोग सेंधालोण आदि लवणवर्ग के साथ करें तो वातकोपको नाश करती है। घृत के साथ उपयोग करें तीव्र पित्तकोपको दूर करती है ॥ ३ ॥
हरीतकी उपयोग भेद. कफमुल्लिखतीह नागरैर्गदयुक्ताखिलदोषरोगनुत् । .
सितया सितयात्युपद्रवानभथा ह्यात्मवता निषेविना ॥४॥ भावार्थ:- सोट के साथ अभयाका सेवन करें तो कफको दूर करती है । कृट के साथ उपयोग करें तो संपूर्ण दोषों का नाश करती है। यदि उस का उपयोग शकर के साथ करें तो रोगगत उपद्रवों को दूर करती है ॥१॥
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