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________________ हिताहिताध्यायः । ( ७३३ ) साशिनो दृष्टा कालपरिणामाद्वैद्याश्च स्वयं पिशितभक्षकारसंतः ( तैः ) स्वशास्त्रेऽन्नपानविधी शाक वर्गाधिकारे मूलतंत्रबाह्यं मांसं कृतमिति उक्तं च । आंगेप्याभयसत्क्रियासु च चतुष्कर्मप्रयोगेपुतदोषाणामपि संचयादिषु तथा भैषज्यकर्मस्वपि । रोगोपक्रमषष्ठिभेदविविध वीर्यस्य भेदे प्रती- . कारं नास्ति समस्तमांसकथनं शाकेषु तत्कथ्यते ? ॥ इत्यशेषांगबाह्यमन्नमौषधं तथा रसायनमपि न भवतीत्येवं निरंतरं शास्त्रेषु निराकृतमप्यतिलोलुपाः स्वयमज्ञानिनोपि सत्कृत्य मांस भक्षयितु मभिलपंतस्संतः केचिदेवं भाषं ते " मांसं मांसेन वद्धत इति"। अथवा साधूक्तं मांसे भक्षिते सति मांसं वर्द्धत इति संबंधादर्थवत्स्यात् । अपि च पूर्वोक्तमेवार्थवदिति वक्तव्यं विचार्यते । किं त मांस भक्षणा. नंतरं मांसस्वरूपेणैव मांसमभिवर्द्धयत्याहोस्विद्रसादिक्रमेणैवेति विकल्पद्वयं । नहि मांस मांसस्वरूपेण मांसाभिवृद्धि करोति । कुतः ? कुड्यमृत्पिडयोरिव मांसशरीरयोरन्योन्याभि गए । अतएव स्वार्थ से उन्होंने अन्नपानविधि व शाकवर्गाधिकार में मूलतंत्रबाह्य मांस को घुसेड दिया है। कहा भी है--- इस प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में शरीर में अभयोत्पन्न क्रियाओं के प्रयोग में, चतुष्कर्म के प्रयोग में, दोषों के संचय होनेपर, भैषज्यकर्म में, रोगोत्पादक साट प्रकार के भेदों में और औषधवीर्य के भेदों में मांस को प्रतीकार के रूप में कहीं कथन नहीं है अर्थात् यह किसी भी दोष का प्रतीकारक नहीं हो सकता है । फिर इस का कथन शाक पदार्थों में क्योंकर हो सकता है ? इप्त प्रकार समस्त अंगशास्त्रों से बहिर्भूत मांस अन्न औषध व रसायन भी नहीं हो सकता है, इत्यादि प्रकार से सदा शास्त्रों में निषिद्ध होने पर भी अतिलोलुपी व स्वयं अज्ञानी, स्वयं मांस खाने की अभिलाषा से कहते हैं कि "मांस मांससे बढा करता है। अधवा ठीक ही कहा है कि मांस के खाने पर मांस बढ़ता है, इस प्रकार सम्बन्ध से अर्थ ग्रहण करना चाहिए । अब उसी अर्थ के वक्तव्य पर विचार करेंगे। क्या उस मांस भक्षण के अनन्तर शरीर में मांस के स्वरूप में ही मांस की वृद्धि होती है अथवा रसादिक्रम से वृद्धि होती है, इस प्रकार दो विकल्प उटाये जाते हैं । मांस मांस के स्वरूप में वृद्धि को नहीं करता है। क्यों कि भीत व मृत्पिड के समान मांस व शरीर में परस्पर अगिवर्धन संबंध नहीं हैं । ऐसा होनेपर अपसिद्धांत दोष का भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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