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________________ ( ७३२ ) कल्याणकारके wweoniwww............... ..................... ___ इति वचनात् मांसमौषधं न भवतीत्येवं तत्प्रमाणापाठात् । सर्वोषधस्य कालोप्यू. हितः । यथा तत्र, प्रातर्भक्तं, प्राग्भक्तं, ऊर्ध्वभक्त, मध्यभक्तं, अंतरभक्तं, सभक्तं, समुद्नं, मुहर्मुहुर्मासे ग्रासांतरे चति दशौषधकालेपत्तरतरस्मिन्काले विशेष मांस भक्षयितव्यमिति कालाभावादौषधं नोपपद्यत इत्येवमुक्तं च ।। द्रव्याणामपि संग्रहे तदुचित क्षेत्रादिकाले तथा । द्रव्योपानतत्पुराधिकमहासहूधिकानुग्रहे ॥ ते सर्वे च विशेषभपजगणास्संत्यत्र किंचित्क्वचि न्मासं नास्ति न शब्दतोपि घटते म्यादौषधं तत्कथम् ॥ तथा मांसं रसायनमपि न भवत्येव, रसायनाधिकारे तस्यापाठात् । क्षीरविरोधित्वात्, मांसस्य तस्मिन जीर्णे पयःसपिरोदन इत्याहारविधानाच । अथवा बहूमां को बिडालपदक [ प्रमाणविशेष ] प्रमाण से ग्रहण करना चाहिए । एवं कल्क को अक्षप्रमाण { २ तोले ) ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार कहा है, परन्तुं इस में मांस का पाठ नहीं है। अतएव मांस औषध नहीं हो सकता है । सभी औषधों को ग्रहण करने का काल भी बतलाया गया है । जैसे कि प्रातःकाल में ग्रहण करना । भोजन से पहिले, भोजन के बाद, भोजन के बीच में, भोजनांतर में, भोजन के साथ, मुद्ग के साथ, बार बार, ग्रास के साथ, ग्रासांतर में, इस प्रकार औषध ग्रहण करने के दस काल बतलाये गए हैं । परन्तु इन में खास कर उत्तरकाल में मांस का सेवन करना चाहिए, इस प्रकार नहीं कहा है क्यों कि उस के लिए कोई काल नियत नहीं है । अतएव वह औषध नहीं हो सकता है । इस प्रकार कहा भी है: लोक में जितने भर भी औषध विशेष हैं उन का ग्रहण द्रव्यसंग्रह के प्रकरण में, द्रव्यसंग्रहोचित क्षेत्रकालादिक में, एवं द्रव्योपार्जन के लिए कारणीभूत सदंधिका प्रकरण में किया गया है । परन्तु उन प्रकरणों में मांस का ग्रहण नहीं हैं। जहां शब्द से भी उसका उल्लेख नहीं है वह औषध किस प्रकार हो सकता है ? इसी प्रकार मांस रसायन भी नहीं हो सकता है । क्यों कि रसायनाधिकार में उस का पाठ नहीं है । क्षीर का विरोधी होने से, मांस के जीर्ण होने पर दूध, घृत व अन्न का सेवन करना चाहिए, ऐसा आहार विधान में किया गया है । अथवा बहुत से मांसभक्षियों को देखकर कालदोष से वैद्य भी मांस-भक्षक बन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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