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हिताहिताबायः।
( ७३१ )
शुद्धं मांसं स्त्रियो वृद्धा बालार्कस्तरुणं दधि ।
प्रत्यूषे मैथुनं निद्रा सद्यःप्राणहराणि षट् ॥ इति अथवा सर्वाण्यौषधानि सक्षीराणि वीर्यवंत्यन्यत्र मधुसर्पिःपिपलिविडंगेभ्य इत्यत्र सावा नीरसातिवक्तव्ये सक्षीरवचनं मांसनिराकरणार्थमेव स्यात् तथाः
प्रशस्तदेशसंभूतं प्रशस्ते काल उद्धृतं । अल्पमात्रं मनस्कांतं गंधवर्णस्सान्वितं । दोषघ्नमग्लानिकरमधिकाधिविपत्तिषु ।
समीक्ष्य दत्तं काले च भेषजं फलमुच्यते । इत्येवमादिलक्षणविरहितत्वात् कालमात्रादिनियमाभावात् ।
द्रवं कुछुवपादद्यात् स्नेहं षोडशिकान्वितं । चूर्ण बिडालपदकं कल्कमक्षजसम्मितम् ॥
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शुद्धमांस, वृद्धस्त्रियों का सेवन, बालार्ककिरण, तरुणदधी, प्रत्यूषकाल का मैथुन व प्रत्यूषकाल की निद्रा ये छह बातें शीघ्र ही मनुष्य के प्राणों को नाश करने वाली हैं।
__ अथवा सर्व औषध दूध के साथ उपयोग करने पर ही वीर्यवान् रोगप्रतिबन्धक] हो सकते हैं। मधु, घृत, पिप्पल व वायविडंग को छोड कर, अर्थात् इन के साथ दूध का संयोग होना चाहिए ऐसा कोई नियम नहीं है । इसलिए औषधियों के साथ क्षीर के उपयोग के लिए जो कहा है वह मांसके निराकरण के लिए ही कहा है । इसीलिए कहा है कि:
प्रशस्त देश में उत्पन्न, प्रशस्त काल में उद्धृत, अल्पमात्र में ग्रहण किया हुआ, मनोहर, गंधवर्ण व रस से संयुक्त, दोषनाशक, अधिक बीमारी में भी अग्लानिकर, एवं योग्यकाल व प्रमाण को देखकर दिया हुआ औषध ही फलकारी होता है । इत्यादि लक्षण मांसमें न होने से, उस में कालमात्रादिक का नियम नहीं बन सकता है । अर्थात् यदि मांस ग्राह्य होता तो उस की मात्रा का भी कथन आचार्य करते या उसको ग्रहण करने का काल इत्यादि का भी कथन करते । परन्तु उस प्रकार उस का कथन नहीं किया है । परन्तु अन्य पदार्थों की मात्रा व काल आदि के सम्बन्ध में कथन मिलता है । जैसे:--
द्रव को एक कुड़ब प्रमाण । ३२ तोले ] ग्रहण करना चाहिए । तेल आदि स्निग्ध पदार्थ घोडाशिका [ पल, ८ तोले ] प्रमाण से ग्रहण करना चाहिए । और चूर्ण
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