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(७१२)
कल्याणकारके
तत्पापहेतुरिति कः संदेहं वदेत् । अहिंसालक्षणो धर्मः प्राणिनामवध इति वचनात् । अत्र पुनः धर्माधर्मविकल्पश्चतुर्विधो भवति, पापं पापनिमित्तं, पापं धर्मनिमित्तं, धर्मः पापनिमित्तं, धर्मो धर्मनिमित्तमित्यन्योन्यानुबंधित्वात् । कामकृताकामकृतविकल्पाल्लौकिकलोकोत्तरिकधर्मद्वैविध्याच लोकव्यापारदेवतायतनकरणदेवर्षिब्राह्मणपूजानिमित्तमकामकृतं पापं धर्माभिवृद्धये [ भवति ] तथा चोक्तम् ॥
पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ ।
दोषाय नालं काणका विषस्य न दृषिका शीतशिवांबुराशौ ॥ इति तथा चैवं द्विजसाधुमुनिगणविशिष्टेष्टजनचिकित्सार्थं सकरुणमचयित्वानीतमौषधं पुण्याय । एवं पैतामहेऽप्युक्तम् ।
अचयित्वाघ्रिपान्मूल-मुत्तराशागतं हरेत् ।। पूर्वदक्षिणपाश्चात्यपत्रपुष्पफलानि च ॥
में कौन संदेह के साथ बोल सकता है। क्यों कि धर्म तो अहिंसा लक्षण है वह प्राणियों को न मारने से होता है । यहांपर धर्माधर्म विकल्प चार प्रकार से होता है । पापका निमित्त पाप, धर्मनिमित्त पाप, पापनिमित्त धर्म, धर्मनिमित्त धर्म, इस प्रकार परस्पर अन्योन्यसंबंधसे चार प्रकार से विभक्त होते हैं । एवं सकामभावना व निष्काम भावना से एवं लौकिक व लोकोत्तर रूप से किये हुए धर्मका भी दो प्रकार है। लौकिकव्यापाररूपी देवायतन, देवपूजा, गुरुपूजा, ब्राह्मणपूजा आदि के लिये निष्काम भावना से कृत पाप धर्माभिवृद्धि के लिए ही कारण होता है। कहा भी है।
पूज्य जिनेंद्रकी पूजा करने के लिए मंदिर बांधने, सामग्री धोने आदि आरंभमें लगने वाले पापका लेश पुण्यसमुद्रके सामने दोषको उत्पन्न करने के लिए समर्थ नहीं है । जिस प्रकार शीतामृतसमुद्रमें विषका एक कण उसको दूषित करनेके लिए समर्थ नहीं होसकता है उसीप्रकार पुण्यकार्य के लिए किये हुए अल्पपापसे विशेषहानि नहीं होसकती है। इसीप्रकार द्विज, साधु व मुनिगण आदि महापुरुषोंकी चिकित्साके लिये करुणा के साथ अर्चना कर लिया हुआ स्थावर औषध पुण्य के लिये ही कारण होता है। पैतामहमें भी कहा है:..उत्तर दिशाकी ओर गए हुए वृक्ष के मूल को अर्चन कर उसे लाना चाहिए । एवं पूर्व, दक्षिण व पश्चिम दिशा की ओर झुके हुए पत्र, फल व पुष्पों को ग्रहण करना चाहिये ।
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