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________________ हिताहिताध्यायः। ( ७४३) एवं सकरुणमौषधानयनवचनमौषधं प्राण्यनुग्रहार्थ, निर्मलतो न विनाशयोदित्यर्थः। अथवा तृणमुल्मलतावृक्षाद्यशेषप्राणिपशुब्राह्मणशिरच्छेदनादिसंभूतपापादीनामसमानत्वादसदृशप्रायश्चित्तोपदेशात् । तथा प्रायश्चित्तस्यैतल्लक्षणमुच्यते । प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत् । तञ्चित्तग्राहको धर्मः प्रायश्चित्तमिति स्मृतम् ॥ उक्तं चः अनुतापेन विख्याज्याद्धितमाद्धतचर्यया । पादपर्धत्रयं सर्वमपहन्यादिति स्मृतम् । एकभुक्तं तथा नक्तं तथाप्यायाचितेन च । एकरात्रोपवासश्च पादकृच्छं प्रकीर्तितम् । (१) अथवा च तस्य मिथ्या भवतु मे दुष्कृतमिति वचनादपि प्रशाम्यंत्यल्पपापानीति सिद्धांतवचनात् । अथवा गंधपणेषु गंधिकोपदिष्टानि नानाद्वीपांतरगतानि नानाविधरसार्यविपा. इस प्रकार करुणा के साथ औषधि को ग्रहण करने का विधान जो किया गया है वह प्राणियों के प्रति अनुग्रह के लिए है । अतएव उन वृक्षादिकों को मूल से नाश नहीं करना चाहिए । अथवा तृण, गुल्म, लता वृक्ष आदि समस्त प्राणि, पशु, ब्राह्मण आदि का शिरच्छेदन से उत्पन्न पाप, सभी समान नहीं हो सकते। अतएव उस के लिए प्रायश्चित्त भी भिन्न २ प्रकार के कहे गए हैं । प्रायश्चित्त का अर्थ आचार्यों ने इस प्रकार बताया है कि:-- . प्राय नाम लोक का है अर्थात् संसार के मनुष्यों को प्रायः के नाम से कहते हैं। चित्त नाम उन के मन का है । उस लोक [प्राय ] के चित्त से ग्रहण होनेवाला जो धर्म है उसे प्रायश्चित्त कहते हैं । कहा भी है प्रायश्चित्त के लिए भिन्न २ प्रकारके आत्मपरिणामोंकी मृदुलासे किए हुए पापोंमें क्रमशः पाद, अर्ध, त्रयांश, और पूर्ण रूप में नाश होते हैं । इसी प्रकार पादकृच्छ्र प्रायश्चित्त में एक भुक्तादिक के अनुष्ठान का उपदेश है। इसी प्रकार वह सभी दुष्कृत मेरे मिथ्या हों इत्यादि आलोचना प्रतिक्रमणात्मक शब्दों से भी पापों का शमन होता है, इस प्रकार सिद्धांत का कथन है । अथवा साधुजनों की चिकित्सा प्रकारण में कहा गया है कि सुगंध द्रव्य की दुकानों में मिलने वाले सुगंध द्रव्य विशेष, नाना द्वीपांतरों में उत्पन्न, अनेक प्रकार के रसवीर्य विपाक ऊपरके दोनों लोक पैतामहके हैं । परंतु ठीक तरह से लगते नहीं । पहिले चरण पाट अशुद्ध पड़ा हुआ मालुम होता है । दोनों श्लोकों का सारांश अपर दिया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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