SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 837
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ७४४ ) कल्याणकारके 'कप्रधानानि, सुप्राकानि, सुरूपाणि, सुमृष्टानि, सुगंधीन्यशेषविशेषगुणगणाकीर्णानि, संपूर्णान्यभिनवान्यखिलमलभेषजानि संतर्पणानि, तैस्साधुजनानां चिकित्सा कर्तव्येति । तदलाभ परकृष्णक्षेत्रेषु हलमुखोत्पाटितान्यविशुष्कानि सर्वर्तुषु सर्वौषधाणि यथालाभं संग्रहं कुर्वीतेति । तदलाभेष्वेवमुच्छिन्नभिन्नशकलामकाच्चित्तकभिन्नसकलचित्ताल्पप्रदेश बहुप्रदेशप्रत्येक साधारण शरीरक्रमेण भेषजान्यपापानि सुविचार्य गृहीत्वा साधूनां साधुरेव चिकित्सां कुर्यादिति कल्पव्यवहारेऽप्युक्तं । उच्छिन्नभिन्नसकलं आमकाच्चित्तभिन्नसकलं च भिन्नसकलं चित्तं अल्पप्रदेश बहुप्रदेशमिति, तस्मात्साधूनां साधुरेव चिकित्सकस्स्यात्तथा चोक्तम् ! सजोगनिठ्ठेह रितीपिनिच्छये साधुगणेसाधु ( ? ) इति साधुचिकित्सकालाभे श्रावकः स्यात्तदलाभे मिथ्यादृष्टिरपि, तदलाभे दुष्टमिध्यादृष्टिनापि वैद्येन सन्मानदानविषंभातिशय मंत्रौषध विद्यादानक्रियया संतोष्य साधूनां चिकित्सा कारयितव्या, सर्वथा परिरक्षणयासावतेषां सुखमेव चिंतनीयम् कर्मक्षयार्थमिति । तथा चरकेणाप्युक्तम् रोगभिषग्विषयाध्याये: - प्रधान, सुप्रासुक, सुरूप, सुस्वाद्य, सुगंधयुक्त, समस्त गुणों से युक्त, ताजे व निर्मल, संतर्पण गुण से युक्त औषधों से साधुजनों की चिकित्सा करनी चाहिए । यदि उस प्रकार के औषध न मिले कृष्णप्रदेशों में उत्पन्न, हलमुख से उत्पाटित अत्यधिक शुष्क नहीं, सर्व ऋतुवों में सर्व योग्य औषधियों को यथालाभ संग्रह करना चाहिए । उस का भी लाभ न होने पर जिस की सचित्तता दूर की जा चुकी है, ऐसे प्रत्येक साधारणादिभेदक्रमों के अनुसार शरीरविभाग पर विचार कर शुद्ध प्रासुक औषधियों को ग्रहण कर साधुवों की चिकित्सा साधुजन ही करें । इस प्रकार कल्पव्यवहार में कहा गया है । साधुजनों की चिकित्सा प्रसुक शुद्ध द्रव्यों के द्वारा योगनिष्ठ साधुजन ही ठीक तरह से कर सकते हैं । यदि चिकित्सक साधु न मिले तो श्रावक से चिकित्सा करावें । यदि वह भी न मिले तो मिध्यादृष्टि वैद्य को सम्मान, दान, आदरातिशय, मंत्र, औषध विद्यादिक प्रदान कर संतोषित करें और उस से चिकित्सा करावें । क्यों कि साधुजन सर्वथा संरक्षण करने योग्य हैं । अतएव उन के सुख के लिए अर्थात् रोगादिक के निवारण के लिए सदा चिंता करनी चाहिये । क्यों कि वे कर्मक्षय करने के लिए उद्यत हैं । अतएव उन के मार्ग में निर्विघ्नता को उपस्थित करना आवश्यक है । वे साधुगण शरीर के निरोग होने पर ही अपने कर्मक्षयरूपी संयममार्ग में प्रवृत्त कर सकते हैं 1. इसी प्रकार चरक ने भी अपने रोग और वैद्य संबंधी अध्याय में प्रतिपादन किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy