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हिताहिताध्यायः।
(४५)
कर्मसिद्धिमर्थसिद्धिं यशोलाभ प्रेत्य च स्वर्गमिच्छता त्वया, गोब्राह्मणमादौ कृत्वा सर्वप्राणभृतां हितं सर्वथाश्रितम् * इति । इमं वस्तु स्थावर जंगमं चेति । तत्र स्थावर द्रव्यवर्ग...... [?] जंगमस्तु पुनर्देहिवर्गः । द्रव्यवर्गयोराहायाहारकमुपकार्योपकारकसाध्यसावनरक्ष्यरक्षणभक्ष्यभक्षणकादिविकल्पात्मकत्वात् । तयोर्भक्ष्यं स्थावरद्रव्यं वर्तते । भक्षणकाले हि वर्ग इति तत्वविकल्पविज्ञानबाह्यमूढ मिथ्यादृष्टिवैद्यास्सर्वभक्षकास्संवृत्ता इति । तथा चोक्तम् ॥
गुणादियुक्तद्रव्येषु शरीरेष्वपि तान्धिदुः ।
स्थानवृद्धिक्षयास्तस्मादेहानां द्रव्यहेतुकाः ।
इतीत्थं सर्वथा देहिपरिरक्षणार्थमेव स्थावरद्रव्याण्यौषधत्वेनोपादीयते । तदा जंगमेष्वपि क्षीरघृतदधितक्रप्रभृतीनि तत्प्राणिनां पोषणस्पर्शनवत्सस्तनपानादिसुखनिमित्त
जो मनुष्य वैद्य होकर कर्मसिद्धि [चिकित्सा में सफलता] अर्थसिद्धि [द्रव्य-लाभ इह लोक में कीर्ति और परलोक में स्वर्ग की अपेक्षा करता हो, उसे उचित है कि वह गुरूपदेश के अनुसार चलने के लिए प्रयत्न करें एवं गौ, ब्राह्मण आदि को लेकर सर्व प्राणियों का आरोग्य वैद्यपर ही आश्रित है, इस बात को ध्यान में रक्खें । और उन्हें सदा आरोग्य का आश्वासन देवें ।
वह द्रव्यवर्ग दो प्रकार का है । एक स्थावर द्रव्यवर्ग और दूसरा जंगमद्रव्यवर्ग। [स्थावर द्रव्यवर्ग पृथवी, अप, तेज, वायु, वनस्पत्यात्मक है ] | जंगम द्रव्यवर्ग तो प्राणिवर्ग है। द्रव्यवर्गों में आहार्य आहारक, उपकार्य उपकारक, साध्य साधन, रक्ष्य रक्षण, भक्ष्य भक्षण, इस प्रकार के विकल्प होते हैं। उन में स्थावर द्रव्य तो भक्ष्य वर्ग में है । भक्षणकाल में कौनसा पदार्थ भक्ष्यवर्ग में है, और कौनसा भक्षणवर्ग में है इस प्रकार के तत्वविकल्पज्ञानसे शून्य मूढमिथ्यादृष्टि वैद्यगण सर्व [भक्ष्याभक्ष्य ] भक्षक बन गए । कहा भी है
.. गुणादियुक्त द्रव्यों में, [ उन स्थावर ] शरीरों में भी स्थिति, वृद्धि व क्षय करने का सामर्थ्य है । अतएव देह के लिए द्रव्य [ स्थावर ] भी पोषक है।
इस प्रकार सर्वथा प्राणियों के संरक्षण के लिए ही स्थावर द्रव्यों को औषधि के रूप में ग्रहण किया जाता है। इसी प्रकार जंगम प्राणियों के भी क्षीर, घृत, दही, तक आदियों को उन प्राणियों के पोषण, स्पर्शन, वत्सस्तनपान आदि सुखनिमित्त
__ * शर्माशासितव्यमिति मद्रितचरकसंहितायाम् । परन्तु रोगभिषग्जितीय विमान अध्याय इति मुद्रितपुस्तके।
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