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________________ कल्याणकारके संभूतान्याहारभेषजविकल्पनार्थमुपकल्प्यते । तस्मादभक्ष्यो देहिवर्गो इत्येव सिद्धो नः सिद्धांतः । तथा चोक्तम् । मांस तावदिहाहतिर्न भवति, प्रख्यातसद्भेषजं । नैवात्युत्तमसद्रसायनमपि प्रोक्तं कथं ब्रह्मणा । सर्वज्ञेन दयालुना तनुभृतामत्यर्थमेतत्कृतं । तस्मात्तन्मधुमद्यमांससहितं पश्चात्कृतं लंपटैः ॥ एवमिदानीतनवैद्या दुर्गृहीतदुर्विद्यावलेपाद्यहंकारदुर्विदग्धाः परमार्थवस्तुतत्वं सवि. स्तरं कथमपि न गृण्हतीत्येवमुक्तं च । अज्ञस्सुखमाराध्यस्मुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रंजयति ॥ . एवं-- से उत्पन्न होने से औषधियों के उपयोग में ग्रहण किया जाता है । इसलिए देहिवर्ग [प्राणिवर्ग ] अभक्ष्य है । इस प्रकार का हमारा सिद्धांत सिद्ध हुआ। इसलिए कहा है कि- यह मांस आहार के काम में नहीं आसकता है। और प्रख्यात औषधि में भी इस की गणना नहीं है । और न यह उत्तम रसायन ही हो सकता है। फिर ऐसे निंद्य अभक्ष्य, निरुपयोगी, हिंसाजनितपदार्थ को सेवन करने के लिए सर्वज्ञ, दयालु, ब्रह्मऋषि किस प्रकार कह सकते हैं ? अतः निश्चित है कि इस आयुर्वेदशास्त्र में निहालंपटों के द्वारा मधु, मद्य, और मांस बाद में मिलाये गये हैं। - इस प्रकार युक्ति व शास्त्रप्रमाण से विस्तार के साथ समझाने पर भी दुष्ट दृष्टि. कोण से गृहीतदुर्विद्या के अहंकार से मदोन्मत्त, आजकल के वैध किसी तरह उसे मानने के लिए तैयार नहीं होते । इसमें आश्चर्य क्या है ? कहा भी है- बिलकुल न समझनेवाले मूर्ख को सुधारना कठिन नहीं है । इसी प्रकार विशेष जाननेवाले बुद्धिमान् व्यक्ति को भी किसी विषय को समझाना फिर भी सरल है। परंतु थोडे ज्ञान को पाकर अधिकगर्व करनेवाले मानीपंडित को ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता है। सामान्यजनों की बात ही क्या है ? । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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