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________________ व्याधिसमुद्देशः । (१२१) अनुपक्रम याप्य के लक्षण । कालांतरासाध्यतमास्तु याप्या । भैषज्यलाभादपशांतरूपाः ॥ प्राणांश्च सद्यः क्षपयंत्यसाध्याः। बिख्याप्य तपमुपक्रमेत ॥ ५९ ।। भावार्थ:-जो रोग उसके अनकूल औषधि पथ्य आदि सेवन करते रहनेसे दब जाते हैं (रोगी का सद्य प्राण वात नहीं करते हैं ) और कालांतरमें प्राणघात करते हैं असाध्य होते हैं वे याप्य कहलाते है। तत्काल प्राणोंका जो हरण करते हैं उनको असाध्य अर्थात् अनुपक्रम रोग कहते हैं। वैद्यको उचित हैं कि इन असाध्य अवस्थाओंकी चिकित्सा करते समय, स्पष्टतया बताकर चिकित्सा आरंभ करें (अन्यथा अपयश होता है)। ५९ ॥ कृच्छ्रसाध्य, सुसाध्य के लक्षण । महाप्रयत्नान्महतःप्रबंधान्महाप्रयोगैरिहकृच्छ्रसाध्याः॥ अल्पप्रयत्नादपिचाल्पकाला- । दल्पौषधैस्साधुतरस्साध्यम् ।। ६० ॥ भावार्थ:-बडे २ प्रयत्नसे, बहुत व्यवस्थासे एवं बडे २ प्रयोगोंके द्वारा चिकित्सा करनेसे जो रोग शांत होते हों, उनको कठिनसाध्य समझना चाहिये। अल्प प्रयत्नसे, अल्प कालमें अल्प औषधियोंद्वारा जिसका उपशम होता हो उसको सुखसाध्य समझना चाहिये। विद्वानोंका आद्यकर्तव्य। चतुःप्रकाराः प्रतिपादिता इमे । समस्तरोगास्तनुविघ्नकारिणः ॥ ततश्चतुर्वर्गविधानसाधनं ।। शरीरमाद्यं परिरक्ष्यते बुधः ॥ ६१ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार वह रोग चार प्रकारसे निरूपण किये गये हैं। जितने भर भी रोग हैं वे सब शरीरमें बाधा पहुंचानेवाले हैं। धर्म, अर्थ, काम, मोक्षरूपी चतुः पुरुषार्थोके साधन करने के लिये शरीर प्रधान साधन है । क्यों कि शरीरके बिना धर्म साधन नहीं होसकता है। धर्म साधनके विना अर्थ, और अर्थक विना काम साधन नहीं बन सकता है । एवं च जो त्रिवर्गस शून्य हैं उनको मोक्षकी प्राप्ति होना असंभव ही है। इसलिये बुद्धिमानोंको उचित है कि चतुःपुरुषार्थोकी सिद्धिक लिये सबसे पहिले शरीरकी हरतरहसे रक्षा करें ॥ ६१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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