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________________ (१२२) कल्याणकारक चिकित्सा के विषय में उपेक्षा न करें। साध्याः कृच्छूतरा भवंत्यविहिताः कृच्छ्राश्च याप्यात्मकाः । याप्यास्तेऽपि तथाप्यसाध्यनिभृताः साक्षादसाध्या अपि ॥ प्राणान्हंतुमिहोयता इति पुरा श्रीपूज्यपादार्पिता-- । द्वाक्याक्षिप्रमिहाग्निसपसदृशान् रोगान् सदा साधयेत् ॥ ६२ ॥ भावार्थ:-शीघ्र और ठीक २ ( शास्त्रोक्तपद्धति के अनुसार ) चिकित्सा न करने से, अर्थात् रोगों की चिकित्सा, शास्त्रोक्त पद्धति के अनुसार, शीघ्र न करने से, जो रोग सुखसाध्य हैं वे ही कृष साध्य हो जाते हैं। जो कृच्छ्रसाध्य हैं वे याप्यत्वको, जो याप्य हैं ये अनुपक्रमत्य अवस्था को प्राप्त करते हैं। और जो अनुपक्रम हैं, वे तत्क्षण ही, प्राण का घात करते हैं। इसप्रकार प्राचीन कालमें, आचार्य श्रीपूज्यपादने कहा है। इसलिये, अग्नि और सर्प के समान, शीघ्र अमूल्यप्राण को नष्ट करने वाले रोगों को, हमेशा शीघ्र ही योग्य चिकित्सा द्वारा ठीक करें ।। ६२ ॥ अंतिम कथन । इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो। निस्तमिदं हि शीकरानिभं जगदेकहितम् ॥ ६३ ॥ . भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी सिके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ६३.॥ इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके चिकित्साधिकारे व्याधिसमुद्देश आदितस्सप्तमपरिच्छेदः । इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में व्याधिसमुद्देश नामक सातवां परिच्छेद समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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