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________________ क्षुद्ररोगाधिकारः । ( ३३७) भावार्थ:- मनुष्य के शरीर में मुख सारे शरीरका अर्धभाग समझना चाहिये क्योंकि मुख न हो तो उस शरीर की कोई कीमत नहीं है । अतएव [ अन्य अंगोंकी अपेक्षा ] मुख्य है । मुखमें भी अन्य इंद्रियों की अपेक्षा नेत्रका मूल्य अधिक है । क्यों कि यदि नेत्र न हो तो वह मनुष्य अंधकारसे घिरा हुआ एक वृक्षके समान है ॥ १२३ ॥ नेत्ररोग की संख्या, ततस्तु तद्रक्षणमेव शोभनं । यथार्थनेनेंद्रियबाधका शुभाः ॥ षडुत्तराः सप्ततिरेव संख्यया । दुरामयास्तान् समुपाचरेद्भिषक् ॥ १२४॥ भावार्थ:- इसलिये उस नेनेंद्रिय की रक्षा करनेमें ही शोभा हे अर्थात् हर तरहसे उस की रक्षा करनी चाहिये । यथार्थ में नेत्रेदियको बाधा देनेवाले, अशुभ, व दुष्ट छहत्तर रोग होते हैं । उनकी वैद्य बहुत विचारपूर्वक चिकित्सा करें ॥ १२४ ॥ नेत्ररोगके कारण. ૪૨ जलप्रवेशादतितप्तदेहिनः । स्थिरासनात् संक्रमणाच्च घमतः ॥ व्यवायनिद्राक्षतिसूक्ष्मदर्शना । जो विधूमश्रमवाप्पेनिग्रहात् ॥ १२५॥ शिरोतिरूक्षादतिरुक्षभोजनात् । पुरीषमूत्रानिलवेगधारणात् ॥ पलांडराजीलशुनाईभक्षणा- । द्भवंति नेत्रे विविधाः स्वदोषजाः ॥ १२६॥ भावार्थ:-- गरमी से अत्यंत तप्त होकर एकदम ( ठण्डा ) जलमें प्रवेश ( स्नान, पानी में डूबना आदि ) करने से, स्थिर आसन में रहने से, ऋतुओंके संक्रमण अर्थात् ऋतुविपर्यय होनेसे ( आंख में ) पसीना आने से, अथवा अत्यधिक चलनेसे, अति मैथुन से, निद्राका नाश होनेसे, सूक्ष्मपदार्थों को देखने से, धूली का प्रवेश व धूमका लगने से, अधिक श्रमसे, आसूंके रोकने से शिर अत्यंत रूक्ष होनेसे, अधिक रूक्षभोजनसे, मल, मूत्र, वायु इनके वेगोंको धारण करने से, प्याज, राई, लहसन, अदरख, इनके अधिक भक्षण से, नेत्राश्रित दोषों से उत्पन्न नानाप्रकार के रोग नेत्र में होते हैं ॥ १२५।१२६ ॥ नेत्र रोगोंके आश्रय । अतस्तु तेषां त्रिविधास्तथाश्रयाः । समण्डलान्यत्र च संघयोऽपरे ॥ भवंति नेत्र पटलानि तान्यलं । पृथक् पृथक पंच षडेव षट्पुनः ॥१२७॥ भावार्थ:-- उन नेत्र रोगों के नेत्रों में मण्डल, संधि, पटल ये तीन प्रकार के आश्रय हैं । और क्रमश: इन की संख्या [ पृथक् ] पांच छह और छह होता हैं । अर्थात् पांच मण्डल, छह संधि और छह पटल होते हैं ॥ १२७ ॥ " चंक्रमणाच्च' इति परे । २ विन्दुनात् इति पाठांतरं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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