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________________ कल्याणकारके भावार्थ:-इस प्रकार छासठ ६६ प्रकार के मुखरोगों का वर्णन प्रयत्नपूर्वक किया गया है । उन पूर्वोक्त ओष्ठरोगों में त्रिदोष ( सन्निपात ) मांस, रक्त इनसे उत्पन्न ३ तीन ओष्ठ रोग छोडने योग्य हैं अर्थात् अचिकित्स्य है ।। ११८ ॥ दतगत असाध्यरोग। स्वदंतमूलेष्वपि वर्जनीयौ । त्रिदोषालिंगौ गतिशौपिरौ परौ ॥ तथैव दंतप्रभवास्ततोऽपरे । सदालनश्यामलभंजनैर्द्विजाः ॥ ११९ ॥ भावार्थः--दंतमुलज रोगोंमें तीनों दोषोंके लक्षणोंसे संयुक्त, अर्थात् तीनों दोषों से उत्पन्न नाडी व महाशोषिर ये दोनो रोग वर्जनीय है । एवं दंतोत्पन्न रोगों में दालन, श्यावदंत, भंजन ये तीन रोग असाध्य हैं ॥ ११९ ॥ रसनद्रिय, व तालुगत असाध्यरोग । कंठगत व सर्वगत असाध्य रोग रसेंद्रिये चाप्यलसं महागदं । विवर्जयेत्तालगतं तथार्बुद ॥ गले स्वरघ्नं वलयं संबृदम् । महालसं मांसचयं च रोहिणीम् ॥ १२० ॥ गलौघमप्युग्रतरं शतान्त्रिकं । भयप्रदं सर्वगतं विचारिणम् ॥ नवोत्तरान्वक्त्रगतामयान्दश । प्रयत्नतस्तान् प्रविचार्य वर्जयेत् ॥१२१॥ भावार्थ:-रसनेंद्रियज अलस नामक महारोग असाध्य है। तालुगत अर्बुद नामक रोग वर्जनीय है. कंठगत स्वरध्न, वलय, वृन्द. महालस, मांसचय मांसंतान रोहिणी, उग्रतर शतघ्नी, एवं सर्वमुख, गत, विचारी रोग को भी भयंकर असाध्य समझना चाहिये । इस प्रकार मुख में होनेवाले उन्नीस रोगों को वैद्य प्रयत्नपूर्वक अच्छी तरहसे विचार करके अर्थात् रोगका निर्णय करके, छोड देवें ॥ १२०||१२१ ॥ ___ अथ नेत्ररोगाधिकार. अतः परं नेत्रगतामयान्ब्रवी- । म्यशेषतः संभवकारणाश्रितान् ॥ विशेषतल्लक्षणतश्चिकित्सितानसाध्यसाध्यानाखिलक्रमान्वितान् ।।१२२।। भावार्थ:--- जब नेत्रगत समस्त रोगोंको उनके उत्पत्तिकारण, लक्षण चिकित्सा, साध्या साध्य विचार आदि बातों के साथ प्रतिपादन करेंगे ।। १२२ ॥ नेत्रका प्रधानत्व. मुख्यं शरीरार्द्धमथाखिलं मुखं । सुखेऽपि नेत्राधिकतां वदति तत् ॥ त्तथैव नेत्रद्वयहीन मानुष- । स्वरूपमानस्तमसावगुंठितः ॥ १२३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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