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कल्याणकारके
भावार्थ---धूमदर्शी रोगके लिए सदा गायका घृत पिलाना व उसीसे मस्य प्रयोग करना हितकर है। कफविकारसे उत्पन्न नेत्ररोगोंको भी रूक्ष व कटु औषधियोंके प्रयोग से एवं तीक्ष्ण शिरोविरेचन से शीन उपशम करना चाहिए ॥ २६१ ॥
बलासप्रथितमें क्षारांजन. धान्यांच्छलाकियवकृष्णतिलान्विशोष्य । छागेन साधुपयसा बहुशो विभाव्य ॥ क्षारप्रणीतविधिना परिदह्य पक्वं ।
नाइयां स्थितं पृथुकफग्रथिनेऽजनं स्यात् ।। २६२ ॥ भावार्थ---शलाकसे युक्त यब, कृष्णतिल, इन धान्योंको अच्छी तरह सुखाकर फिर बकरीके दूधके साथ वार २ भावना देखें । बादमें क्षार बनाने की विधि के अनुसार उनको जलाकर उस भस्म को पानी से छाने और पकावें । इस क्षारको सलाई से बलासप्रथित रोगयुक्त आंख में अंजन करें ॥ २६२ ॥
पिष्टकमें अंजन. सपिप्पलीमरिचनागरशिवीज-। माम्लेन लुंगजनितेन सुपिष्टमिष्टं ॥ तत्पिष्टकं प्रतिनिहंत्यचिरादशेषान् ।
श्लेष्मामयानपि बहून् सततांजनेन ॥ २६३ ॥ भावार्थ-पीपल, मिरच, सोंठ, सेंजनका बीज इनको खट्टे माहुलंगके रसके साथ अच्छीतरह पीसकर अंजन बनावें । इस अंजनको अक्षिगत पिष्टक रोगोंमें सतत आंजने से उन रोगोंको दर करने के अलावा वह अनेक श्लेष्मरोगोंका भी शीघ्र नाश करता है ॥ २६३ ॥
परिक्लिन्नवर्ममें अंजन. कासीससिंधुलवणं जलधीप्रसूति । तालं फलाम्लपरिपिष्टमनेन मिश्रम् ॥ कांस्यं सुचूर्णमवदह्य पुटेन जाती।
क्षारेण कल्कितमिदं विनिहंति पिल्लं ॥ २६४ ।। भावार्थ:-कसीस, सेंधानमक समुद्रफेन हरताल इनको खट्टे फलोंके रसके साथ अच्छीतरह पीसें । उस में कांसेका भस्म जो पुटपाक व क्षारपाकसे तैयार किया हुआ
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