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क्षुद्ररोगाधिकारः
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हो, उसमें जाती क्षारको मिलाकर अंजन बनावें । वह परिक्लिन्नवर्मको नाश करनके लिए हितकर है ॥ २६४ ॥
कण्डूनाशकअंजन. नादेयशुक्लमरिचानि मनःशिलानि । जातीप्रवालकुसुमानि फलाम्लपिष्टा-॥ न्याशोष्य धर्तिमसकृन्नयनांजनेन ।
कंडू निहंति कफजानखिलान्विकारान् ॥ २६५ ॥ . भावार्थ:--- सेंधानमक, सफेद मिरच [ छिलका निकाला हुआ काली मिर्च ] मैनाल, चमेलीका कोपल और फूल, इन को अम्लफलों के रसमें पार कर बत्ती बनाकर उसको सुखावें । इससे, बार २ अंजन करनेसे आंखों की खुजली और अफसे उत्पन्न अन्य समस्त विकारोंका नाश होता है ॥ २५५ ॥
रक्तजनेत्ररोगचिकित्साधिकारः।
सर्वनेत्ररोगचिकित्सा. रक्तोत्थितानखिलनेत्रगतान्विकारान् । यंदाधिमंथबहुरक्तशिराममूतान् ।। सर्पिःप्रलेपनमृदून्सहसा शिराणां ।
मोक्षजयेदपि च देहशिरोविरेकैः ॥ २६६ ॥ भावार्थ-रक्तके विकारसे उत्पन्न नेत्रगत समस्त रोगोंको एवं रक्ताभियंद, रक्तजाधिमंथ, शिराहर्ष, शिरोत्पात इन रोगोंको भी घृतके लेपनसे मृदु बनाकर शिरामोक्षण घ विरेचन और शिरोविरेचन से जीतना चाहिये ॥ २६६ ॥
पीडायुक्तरक्तजनेत्ररोगचिकित्सा. आश्च्योतनांजनसनस्यपुटप्रपाक-1 धृमाक्षितर्पणविलेपनतत्मदेहान् ॥ मुस्निग्धशीतलगणैः मुगुडैनियुक्तं ।
सोष्णैर्जयेयदि च तीव्ररुजासुतीत्रान् ॥ २१७॥ भावार्थ:--रक्तज तीव्र नेत्ररोग यदि तीन पीड़ा से युक्त हो तो स्निग्ध शीतल
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