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कल्पाधिकारः।
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भावार्थ:-शुद्ध किये हुए चित्रक के मूल को काथ विधि से पकाकर काढा तयार कर के उस में शीघ्र ही निर्मल श्रेष्ठ शर्करा व शंखनाभि को जलाकर डाले और शीघ्र ही उसे छानकरके उस में फाणित मिलावे । वह ठंडा होजाने पर सम्पूर्ण गंध द्रव्यों के कल्क मिलाकर, उसे संस्कृत वडे में भरकर धान्यराशि में गांढदे । और एक महीने के बाद निकाल दे । इस प्रकार सिद्ध सुगंध, सुरूप, सुरुचि, सर्वरोग समूह को नाश करनेवाले, व सौख्यदायक इस चित्राक रसायन को विधिप्रकार हमेशा सेवन करे तो विशिष्ट बलशाली राजयक्ष्मा [ क्षय ] भयंकर बवासीर एवं सम्पूर्ण रोग भी नाश हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ ४४ ॥
त्रिफलादिकप. एवं सत्रिफलासुचित्रकगणायुक्तोरुसद्भेषजा-। न्युक्तान्युक्तकषायपाकविधिना कृत्वा निषेव्यातुरः ॥
जीवेद्वर्षशतत्रयं निखिलरोगैकप्रमाथी स्वयं । . निर्वीर्योऽप्यतिवीर्यधैर्यसहितः साक्षादनंगोपमः ॥ ४५ ॥
भावार्थः- इसी प्रकार पूर्वोक्त ( ४० वें श्लोक में कहे गये ) त्रिफला चित्रकगणोक्त आदि औषधियों को उक्त कषायपाक विधान से पकाकर [ फाणित या शक्कर, गंधद्रव्य आदि मिलाकर चित्राक कल्प के समान सिद्ध कर के ] रोगी सेवन करे तो वह मनुष्य तीन सौ वर्ष पर्यंत संपूर्ण रोगों से रहित होकर बलान होनेपर भी अयंत बलशाली होते हुए, अत्यंत धैर्यशःली व कामदेव के समान सुंदर रूप को धारण कर सुखसे जीता है ॥ ४५ ॥
- कल्प का उपसंहार. इत्येवं विविधविकल्पकल्पयोगं शास्त्रोक्तक्रमविधिना निषेव्य मर्त्यः । प्राप्नोति प्रकटबलं प्रतापमायुर्य चाप्रतिहततां निरामयत्वम् ।।४६॥
भावार्थ:-इस प्रकार अनेक भेदों से विभक्त कल्पो के योगोंको शास्त्रोक्त विधि से सेवन करे तो वह मनुष्य विशिष्टबल, तेज, आयु, वीर्य, अजेयत्व व निरोगता को प्राप्त करता है ॥ ४६॥
प्रत्यक्षप्रकटफलप्रसिद्धयोगान् सिद्धांतोष्टतनिजबुद्धिभिः प्रणीतान् । : ... बुध्यैवं विधिवदिह प्रयुज्य यमाहुयाखिलरिपवो भवंति माः ॥४७॥ १ चित्रक के जड को चूने के पानी में डालकर रखने से शुद्ध हो जाता है ।
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