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________________ शास्त्र संग्रहाधिकारः । ( ५३१ ) विधान भी किया गया है । अब पंद्रह प्रकार के औषधकर्म व उन के गुण, दश औषधसम्पूर्ण घृततैलों के पाक का विकल्प ( भेद ) रस के त्रेसठ भेद, अरिष्टलक्षण, मर्मस्थान, इन को संक्षेप से आगे आगमानुसार कहेंगे ॥ १६ ॥ काल, दशऔषधकाल. संशमनाग्निदीपनरसायनबृंहणलेखनोक्तसां - । ग्राहिक वृष्यशोषकरणान्विततद्विलयमधोर्ध्वभा ॥ गोभयभागशुद्धिसविरेक विपाणि विषौषधान्यपि । माहुरशेषभेषजकृताखिलकर्म समस्त वेदिनः ॥ १७ ॥ भावार्थ:-- १ संशमन, २ अग्निदीपन, ३ रसायन, ४ बृंहण, ५ लेखन, ६ संग्रहण, ७ वृष्य, ८ शोषकरण, ९ विलयन, १० अधः शोधव, ११ ऊर्ध्वशोधन, १२ उभयभागशोधन, १३ विरेचन, १४ विष, १५ विषौषध, ये सम्पूर्ण औषधियों के पंद्रह कर्म हैं ऐसा सर्वज्ञ भगवान ने कहा है ॥ १७ ॥ दशऔषधकाल. निर्भक्त, प्राग्भक्त, ऊर्ध्वभक्त व मध्यभक्तलक्षण. प्रातरिहौषधं बलवतामखिलामयनाशकारणं । प्रागपि भक्ततो भवति शीघ्रविपाककरं सुखावहम् ॥ ऊर्ध्वमथाशनादुपरि रोगगणानपि मध्यगं । स्वमध्यगान्विनाशयति दत्तमिदं भिषजाधिजानता ॥ १८ ॥ भावार्थ: - १ निर्भक्त, २ प्राग्भक्त, ३ ऊर्ध्वभक्त ४ मध्यभक्त, ५ अंतराभक्त, ६ सभक्त, ७ सामुद्र, ८ मुहुर्मुहु, ९ ग्रास, १० ग्रासांतर ये दस औषधकाल [ औषध सेवन का समय ] है । यहां से इसी का वर्णन आचार्य करते हैं । अन्नादिक का बिलकुल सेवन न कर के केवल औषधका ही उपयोग प्रातःकाल, बलवान् मनुष्यों के लिये ही किया जाता है उसे निर्भक्त कहते हैं । इस प्रकार सेवन करने से औषध अत्यंत वीर्यवान् होता है । अतएव सर्वरोगों को नाश करने में समर्थ होता है । जो औषध भोजन के पहिले उपयोग किया जावे उसे प्राग्भक्त कहते हैं । यह काल शीघ्र १ इस प्रकार के औषध सेवन को बलवान् मनुष्य ही सहन कर सकते हैं । बालक, बूढ़े, स्त्री कोमल स्वभाव के मनुष्य ग्लानि को प्राप्त करते हैं । ८८ २ तत्र निर्भक्तं केकलमेवौषधमुपयुज्यते " इति ग्रंथांतरे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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