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कल्याणकारके
द्रव, शुष्क, एककाल, द्विकाल भोजन. तीव्रतृषातिशोषणषिशुष्कतनूनपि दुर्बलान्द्रवै-1. महिमहोदराक्षिनिजकुक्षिविकारयुतक्षताकुलो- ।। द्गारिनरान्नयेदिह विशुष्कतरेरनलाभिवृद्धय ।
मंदसमानिकाल्लघुभिरेकवरद्विकभोजनैः क्रमात् ॥ १४ ॥ भावार्थ:-जो रोगी तीव्रतृषा से युक्त हो, जिसका मुख अत्यधिक सूख गया हो, जिसका शरीर शुष्क हो, दुर्बल हो, उन को द्रवपदार्थो से उपचार करना चाहिये । प्रमेही, महोदर, अक्षिरोग, कुक्षिरोग, क्षत व डकार से पीडित रोगी को शुष्क पदार्थोसे उपचार करना चाहिये । मंदाग्नि में अग्निवृद्धि करने के लिये एक दफे लघुभोजन कराना चाहिये । समाग्नि में दो दफे भोजन कराना चाहिये ॥ १४ ॥
औषधरोपिणामशनमोपधसाधितमेव दापये- । दनिविहीनरोगिषु च हीनतरं घड्ऋतप्रचोदितं ॥
दोपशमनार्थ मुक्तमतिपुष्टिकरं बलवृष्यकारणं । __स्वस्थजनोचितं भवति वृत्तिकरं प्रतिपादितं जिनैः ॥ १५ ॥
भावार्थ:-जो औषधद्वेषी है [ औषध खाने में हिचकिचाते हैं ] उन्हे औषधियों से सिद ( या मिश्रित ) भोजन देना चाहिये। जिन की अग्नि एकदम कम हो गयी हो। उन्हे मात्राहीन [ प्रमाण से कम ] भोजन देना चहिये । दोषों के शमन करने के लिये छहों ऋतुओं के योग्य ( जिस ऋतु में जो २ भोजन कहा है ) भोजन देना चाहिये। [ यही दोषशमन भोजन है ] स्वस्थपुरुषों के शरीर के रक्षणार्थ, पुष्टि, बल, वृष्य कारक ( ब समसरसयुक्त ) आहार देना चाहिये ऐसा भगवान् जिनेंद्र देवने कहा
भैषजकर्मादिधर्णनप्रतिशा. द्वादशभाजनक्रमविधिर्विहितो दशपंच चैवस-। द्भपजकर्मनिर्मितगुणान्दशभेषजकालसंख्यया ॥ सर्वमिहाज्यतैलपरिपाकविकल्परसत्रिषष्टिभे-।
दानपि रिष्टमर्मसहितानुपसंहरणैवाम्यहम् ॥ १६ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार बारह प्रकार के भोजन [ शीत, उष्ण, स्निग्ध, रूक्ष, द्रव, शुष्क, एककाल, द्विकाल, औषधयुक्त, मात्राहीन दोषशमन और वृष्यभोजन ] व उसका
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