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अन्नपानविधिः
अथ जलवर्गः ।
पृथ्वीगुणबाहुल्य भूमिका लक्षण व वहांका जलस्वरूप ।
स्थिरतरगुरुकृष्णश्यामला खोपलाढ्या । बृहदुरुतृणवृक्षा स्थूलसस्यावनी स्यात् ॥ क्षितिगुणबहुलात्तत्राम्लतामेति तोयं । लवणमपि च भूमौ क्षेत्ररूपं च सर्वे ॥ ३ ॥
भावार्थ:- जो भूमि अत्यंत कठिन व भारी हो, जिसका वर्ण, काला व श्याम हो, जहां अधिक पत्थर, अधिक बडे २ तृण वृक्ष और स्थूल सस्यों से युक्त हो तो उस भूमि को, अत्यधिक पृथ्वी गुण युक्त समझना चाहिये। वहां का जल, पृथ्वीगुण के बाहुल्य से, खट्टा व खारा स्वादवाला होता है । क्यों कि जिस भूमि का गुण जैसा होता है तदनुकूल ही सभी पदार्थ होते हैं ॥ ३ ॥
जलगुणाधिक्य भूमि एव वहांका जलस्वरूप ।
शिशिरगुणसमेता संततो यातिशुक्ला । मृदुतरतृणवृक्षा स्निग्धसस्या रसाच्या ॥ जलगुणबहुतेय भूस्ततः शुक्लमंभो । मधुररससमेतं मृष्टमिष्टं मनोज्ञम् ॥ ४ ॥
भावार्थ:- जो भूमि शीतगुणसे युक्त है, सफेदवर्णवाली है, कोमल तृण व वृक्षों से संयुक्त है तथा स्निग्ध, और रसीले सस्य सहित हैं, वह जलगुण अधिकवाली भूमि है। वहां का जल सफेद, स्वच्छ, मधुररससंयुक्त, [ इसलिये ] स्वादिष्ट, और मनोज्ञ होता है ॥ ४ ॥
वाताधिक्य भूमि एवं हां का जलस्वरूप । परुषविषमरूक्षायकापांतवर्णा ।
(६९)
विरसतृणकुसस्या कोटरप्रायवृक्षा || पवनगुणमयी स्यात्सा मही तत्र तोयं । कटुक खलु कषायं धूम्रवर्णं हि रूपम् ॥ ५ ॥
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भावार्थ:- जहांकी भूमि कठिन हो, ऊंचीनीची विषम रूपसे स्थित हो, रुक्ष हो भूरे वर्णकी हो, कबूतरी रंगकी हो, और जहांके तृण प्रायः रसरहित हों, कुसम्यसे युक्त
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