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(६८)
कल्याणकारके
अथ पंचमपरिच्छेदः।
द्रवद्रव्याधिकार ।
मंगलाचरण । अथ जिनमुनिनाथं द्रव्यतत्वप्रवीणं । सकलविमलसम्यग्ज्ञाननेवं त्रिणेत्रम् ॥ अनुदिनमभिवंद्य प्रोच्यते तोयभेदः ।
क्षितिजलपवनाग्न्याकाशभृमिप्रदेशैः ॥१॥ भावार्थ:-अब हम जिन और मुनियोंके स्वामी द्रव्यस्वरूपके निरूपण करने में कुशल, निर्मल केवलज्ञानरूपी नेत्रसे युक्त, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपी तीन नेत्रोंसे सुशोभित, भगवान् अर्हत्परमेष्ठीको नमस्कार कर, पृथ्वी जल वायु अग्नि आकाश मुणयुक्त भूमिप्रदेश के लक्षण के साथ, तत्तभूमि में उत्पन्न जलका विवेचन करेंगे ऐसा श्री आचार्य प्रतिज्ञा करते हैं ॥१॥
रसों की व्यक्तता कैसे हो ? अभिहितवरभूतान्योन्यसर्वप्रवेशेऽप्यधिकतरवशेनैवात्रतोयैः रसस्स्यात् ॥ प्रभवतु भुवि सर्व सर्वथान्योन्यरूपं ।
निजगुणरचनेयं गौणमख्यप्रभेदात् ॥ २ ॥ भावार्थ-पृथ्वी, अप, तेज वायु आकाश ये पांच भूत, प्रत्येक, पदार्थों में मधुरादि रसों की व्यक्तता व उत्पत्ति के लिये कारण हैं । उपर्युक्त पंच महाभूतोंके अन्योन्यप्रवेश होनेसे यदि उसमें जलका अंश अधिक हो तो वह द्रवरूपमें परिणत होता है । इसीतरह पानीमें भी रसके व्यक्त करने के लिये वे ही भूत कारण हैं। लेकिन शंका यह उपस्थित होती है कि, जब जल में ये पांचों भूत एकसाथ अन्योन्यप्रवेशी होकर रहते हैं, तो मधुर आदि खास २ रसोंकी तक्तता कैसे हों? क्यों कि एक २ भूतसे एक २ रस की उत्पत्ति होती है । इस का उत्तर आचार्य देते हैं कि, जिस जलमें जिस भूतका आधिकांशसे विद्यमान हो, उस भूत के अनुकूल रस व्यक्त होता है । इसी प्रकार संसारमें जितने भी पदार्थ हैं उन सब में पांचों भूतों के समावेश होते हुए भी, गौण मुख्य भेदसे अपनी विशिष्ट २ गुणों की रचना होती है ॥२॥
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