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धान्यादिगुणागुणविचार
भावार्थ::- - इस प्रकार लोकमें प्रसिद्ध, शाकों के इस परिच्छेद में साक्षात् कर चुके हैं । अब यहां से आगे, संक्षेप से, द्रवपदार्थों का वर्णन करेंगे । इन द्रवद्रव्यों में से का वर्णन प्रारम्भ किया जायगा । कयों कि प्राणियों के लिये दूध आदि अन्य द्रव पदार्थों की उत्पत्ति में भी जल ही प्रधान द्रव पदार्थों में जल ही प्रधान है ॥ ४७ ॥
अत्यमंगल ।
इति जिनवक्त्र निर्गत सुशास्त्रमहांबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः || उभयभवार्थसाधन तटद्वयभासुरतो । निस्सृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ४८ ॥
भावार्थ:- जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिये प्रयोजनीभूत सावनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र के मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हित साधक है [ इसलिये ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ४८॥
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारके स्वास्थ्यरक्षाणाधिकारे धान्यादिगुणागुणविचारो नाम चतुर्थः परिच्छेदः ।
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इयुग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के स्वास्थ्यरक्षणाधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधित्रिभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखितभावार्थदीपिका टीका में धान्यादिगुणागुणविचार नामक चौथा परिच्छेद समाप्त हुआ ।
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-जीवनं तर्पणं हृद्यं इति ग्रंथांतरे ।
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वर्णन, उन के गुणों के साथ
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अर्थात् अगले परिच्छेद में भी सब से पहिले जल जेल ही बाह्य प्राण है और कारण है । इसलिये सर्व
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