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________________ (११८) कल्याणकारके अज्ञ वैद्यसे हानि। अज्ञानतो वाप्यतिलोभमाहा- । दशास्त्रविद्यः कुरुते चिकित्साम् ।। सर्वानसी मारयतीह जंतून् । क्षितीश्वरैरत्र निवारणीयः ॥ १९ ॥ भावार्थ:--अज्ञान, लोभ व मोहसे शास्त्रको नहीं जानते हुए भी चिकित्सा कार्य में जो प्रवृत्त होता है वह सभी प्राणियोंको मारता है । राजावोंको उचित है कि वे ऐसे वैद्योंको चिकित्सा करने से रोके ॥ ४९ ॥ अक्ष वद्यकी चिकित्साकी निंदा । अज्ञानिना यत्कृतकर्मजातं । कृतार्थमप्यत्र विगर्हणीयम् ॥ उत्कीर्णमप्यक्षरमक्षर -। । न वाच्यते तद्गणवर्णमागः ॥ ५० ॥ भावार्थ:--अज्ञानी वैद्यकी चिकित्सा में सफलता मिली तो भी वह चिकित्सा विद्वानोंद्वारा प्रसंशनीय नहीं होती है । जिसप्रकार कि लकडी को उखेरनेवाली कीडा या अज्ञानी मनुष्यके द्वारा उखेरे हुए अक्षर होनेपर भी उसे विद्वान् लोग गणवर्ण इत्यादि शास्त्रोक्त मागसे नहीं बांचते हैं, या ज्ञानके साधन नहीं समझते इसी प्रकार अज्ञ वैद्यकी चिकित्सा निंद्य समझें ॥ ५० ॥ अज्ञ वैद्य की चिकित्सा से अनर्थ । तस्मादनानिभवति कर्मा-। ण्यज्ञानानिना यानि नियोजितानि ।। सभेषजान्यप्यमृतोपमानि । निस्त्रिंशधाराशनिनिष्ठराणि ॥ ५१ ॥ भावार्थ:-इसलिये अज्ञानियोंद्वारा नियोजित चिकित्सा से अनेक अनर्थ होते हैं चाहे वे औषधियां अच्छी ही क्यों न हों, अमृतसदृश ही क्यों न हो. तथापि खङ्गधारा व बिजलीके समान भयंकर हैं । वे प्राण को घात कर देते हैं ॥ ५१॥ चिकित्सा करनेका नियम । ततस्तुवैद्यास्सुतिथौ सुवारे। नक्षत्रयोगे करणे मुहूर्ते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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