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व्याधिसमुद्देशः ।
___ भावार्थः----धंद्यको इसलिये उचित है कि जिसप्रकार एक पिता अपने पुत्रकी प्रेम भावसे रक्षा करता है उसी प्रकार रोगीको पुत्रके समान समझकर चिकित्सा करें। क्यों कि वह वैद्यके ऊपर विश्वास रखचुका है अतएव करुणाके पात्र है । इसलिये सर्वप्रकारसे अप्रमादी होकर धर्मके लिये सुवैद्य रोगीकी रक्षा करें ॥४५॥
योग्य वैद्य गुरूपदेशादधिगम्य शास्त्रम् । क्रियाश्च दृष्टाःसकलाः प्रयोगः ॥ स कर्म क भिषगत्र योग्यो ।
न शास्त्रविनैवच कर्मविद्वा ॥ ४६ ॥ भावार्थ:-गुरूपदेशसे आयुर्वेद शास्त्रको अध्ययन कर औषध योजनाके साथ २ सम्पूर्ण चिकित्सा को देखें व अनुभव करें । जो शास्त्र जानता है और जिसको चिकिसा प्रयोगका अनुभव है वहीं वैद्य योग्य है। केवल शास्त्र जाननेवाला अथवा केवल क्रिया जाननेवाला योग्य वैद्य नहीं हो सकता ॥ ४६ ॥
प्रागुक्तकथनसमर्थन। तावप्यनन्यान्यमतप्रवीणौ। क्रियां विधातुं नहि तौ समर्थी ॥ एकैकपादाविव देवदत्ता-।
वन्योन्यबद्धौ नहि तो प्रयातुम् ॥ ४७॥ भावार्थ:---एक शास्त्र जाननेवाले और एक क्रिया जाननेवाले ऐसे दो वैयोंके एकत्र मिलनेपर भी वे दोनों चिकित्सा करनेमें समर्थ नहीं होसकते, जिसप्रकार कि एक एक पैरवाले देवदत्तोंके एक साथ बांधनेपर भी वे चलनमें समर्थ नहीं हो पाते हैं ॥४७॥
उभयशवैद्य ही चिकित्सा के लिये योग्य। यस्तूभयज्ञो मतिमानशेष-। प्रयोगयंत्रागमशस्त्रशास्त्रः ॥ राज्ञोपदिष्टस्सकलप्रजानाम् ।
क्रियां विधातुं भिषगत्र योग्यः ॥४८॥ भावार्थ:--.--जो दोनों ( क्रिया और शास्त्र ) बातों में प्रवीण है, बुद्धिमान है सर्व औषधि प्रयोग यंत्रशास्त्र, शस्त्र, शास्त्र आदिका ज्ञान रखता है, वह वैच रांजाची आज्ञासे सम्पूर्ण प्रजा की चिकित्सा करने योग्य है ॥ ४८ ॥
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