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________________ (११६) कल्याणकारके तैस्तद्विकारानचिरेण हंति । चतुष्टयनैव बलेन शत्रून ॥ ४२ ॥ भावार्थ:-इन पूर्व कथितगुणांस युक्त, वेद्य, आतुर, औषध, और परिचारक, चिकित्साके विषयमें, असाधारण पाद चतुष्टय कहलाते हैं । ये चारों चिकित्सा के अंग हैं । इनके द्वारा ही, रोगोंक समूह शीघ्र नाश हो सकते हैं । जिसप्रकार राजा चतुरंगसेनाके बलसे शत्रुवोंको नाश करता है ॥ ४२ ॥ वैद्य की प्रधानता। पादस्त्रिभिर्भासुरसगुणाढ्यो । वेद्यो महानातुरमाशु सौख्यं ॥ सम्मापयत्यागमदृष्टतत्वो। रत्नत्रयेणेव गुरुस्स्वशिष्यम् ।। ४३ ॥ भावार्थ:-आगमके तत्वों के अभ्यस्त, सद्गुणी वैद्य उपर्युक्त औषधि और परिचारक य आतुर रूपी प्रधान अंगोंकी सहायतासे भयंकर रोगी को भी शीघ्र आराम पहुंचाता है । जिस प्रकार गुरु सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राके बलसे अपने शिष्योंको उपकार करते हैं ॥ ४३॥ वैटापर रोगीका विश्वास । अथानरो मातृपितृस्वबंधुन् । पुत्रान्समित्रोरुकलत्रवर्गान् ।। विशंकते सर्वहितेकबुदो। विश्वास एवात्र भिषग्वरेऽस्मिन् ॥४४॥ भावार्थ:--रोगी अपने माता पिता पुत्रा मित्र बंधु स्त्री आदि सबको ( औषधिके विषय में ) संदेहकी दृष्टि से देखता है। परंतु सर्वतो प्रकारसे हित को चाहने वाले वैद्यराजके प्रति वह विश्वास रखता है ॥४४॥ रोगीके प्रति वैद्यका कर्तव्य । तस्मात्पितेवात्मसुतं सुवेद्यो । विश्वासयोगात्करुणात्मकत्वात् ॥ सर्वप्रकारेस्सलताप्रमत्तो। रक्षेनरं क्षीणमथी वृषार्थम् ॥ ४५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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