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व्याधिसमुद्देशः ।
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देखा हो, सम्पूर्ण आयुर्वेदीय शास्त्र के अथको गुरुमुखसे जान लिया हो, तथा प्रमादरहित हो। इन गुणोंसे सुशोभित वैद्य ही योग्य वैद्य कहलाता है ॥ ३८ ॥
रोगी के गुण |
अथातुरोप्यर्थपतिश्चिरायु- । बुद्धिमानिष्टकलत्रपुत्र ॥ सुभृत्यबंधुस्सुसमाहितात्मा । सुसत्ववानात्मसुखाभिलाषी ।। ३९ ।।
भावार्थ:- रोगी भी श्रीमंत हो, दीर्घायुपी हो, बुद्धिमान् हो, अनुकूल स्त्रीपुत्र शक्तिशाली हो, जितेंद्रिय हो, एवं आत्मसुख की इच्छा
मित्र बंधु भृत्यों से युक्त हो, रखने वाला हो ॥ ३९ ॥
औषधि गुण |
सुदेशकालो धृतमल्पमात्र । सुखं सुरूपं सुरसं सुगंधि || निपीतमात्रामयनाशहेतुम् । विशेषतो भेषजमादिशति ॥ ४० ॥
भावार्थ:-सुदेश में उत्पन्न, योग्य काल में उद्धृत [ उखाडी ] परिमाण में अल्प, सुखकारक, श्रेष्ठ रूप, रस, गंध से युक्त और जिसके सेवन करने मात्र से ही रोगनाश होता हो ऐसी औषधि प्रशस्त होती है ॥ ४० ॥
परिचारकके गुण ।
बलाधिकः क्षांतिपराः सुधीराः । परार्थबुध्यैकरसप्रधानाः ॥ सहिष्णवः स्निग्धतराः प्रवीणाः ।
भवेयुरेते परिचारकाख्याः ॥ ४१ ॥
भावार्थ:-- -परिचारक अत्यंत बलशाली, क्षमाशील, धीर, परोपकार करनेमें दत्तचित्त, स्नेही एवं चातुर्य से युक्त होना चाहिए अर्थात् रोगीके पास रहनेवाले, परिचारकोंमें उपर्युक्त गुण होने चाहिये ॥ ४१ ॥
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पादचतुष्टय की आवश्यकता |
एते भवत्यप्रतिमा स्तुपादाचिकित्सितस्यांगतया मतीताः ॥
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