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________________ (११४) कल्याणकारक सम्यकृता साधु कृषियथार्थ । ददाति तत्पूरुषदेवयोगात् ॥ ३५ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार उपर्युक्त उद्देशसे का हुई चिकित्सा उस वैद्यको सर्व फल को स्वयं देती है। विन चाहे उसे धन यश सब कुछ मिलते हैं। जिस प्रकार अच्छीतरह की हुई कृषि कृषीवलके पौरुष दैवयोगसे स्वयं धनसंचय कराती है उसी प्रकार शुद्ध हृदयसे की हुई चिकित्सा वैद्यको इह परमें समस्त सुख देती है ॥ ३५ ॥ चिकित्सा से लाभ। कचिच्च धर्म कचिदर्थलाभं । कचिच्च कामं कचिदेव मित्रम् ॥ कचिद्यशस्सा कुरुते चिकित्सा। कचित्सदभ्यासविशादरत्वम् ।। ३६ ॥ भावार्थ:-उस चिकित्सा से वैद्यको कही धर्म (पुण्य) की प्राप्ति होगी । कहीं द्रव्यलाभ होगा। कहीं सुख मिलेगा। किसी जगह मित्रत्व की प्राप्ति होगी। कहीं यशका लाभ होगा और कहीं चिकीत्सा के अभ्यास बढ जायगा ।। ३६ ॥ वैद्योंको निन्य सम्पत्तीकी प्रानि । न चास्ति देशो मनुजैविहीनो । न मानुषस्त्यक्तनिजामिपा वा ॥ न भुक्तवतो विगतामयास्ते-। प्यतो हि संपद्भिपजां हि नित्यम् ॥ ३७ ॥ भावार्थ:-ऐसा कोई देश नहीं जहां मनुष्य न हों । ऐसे कोई मनुष्य नहीं जो भोजन नहीं करते हों। ऐसे कोई भोजन करनेवाले नहीं जो निरोगी हों । इसलिये विद्वान् वैद्यको सदा सम्पत्ति मिलती है ॥ ३७॥ . वैद्यके गुण। चिकित्सकस्सत्यपरस्सुधरिः । क्षमान्वितो हस्तलघुत्वयुक्तः ।। स्वयं कृती दृष्टमहापयोगः ।। समस्तशास्त्रार्थविदप्रमादी ॥ ३८ ॥ भावार्थ:-चिकित्सक वैद्य, सत्यनिष्ट हो, धीर हो, क्षमा और हस्तलावबसे युक्त हो, कृती [ कृतकृत्य व निरोगी ] हो, जिसने बड़ी २ चिकिःसाप्रयोगों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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