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व्याधिसमुद्देशः ।
( ११३)
भावार्थ:-द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावको अनुसरण करके यथायोग्य स्नेहन स्वेदन, वमन विरेचन आदि कर्मों को, तथा छेदनभेदन आदि के योग्य रोगो में छेदन, भेटन आदि क्रिया करें तो रोगपीडित मनुष्य सुखी होता है ॥ ३१ ॥
चिकित्सा प्रशंसा। चिकित्सितं पापविनाशनार्थ । चिकित्सितं धर्मविवृद्धये च । चिकित्सितं चोभयलोकसाधनं ॥
चिकित्सितानास्ति परं तपश्च ।। ३२ ॥ भावार्थ:----गोगयोंकी चिकित्सा करना पापनाशका कारण है। चिकित्सासे धर्मकी वृद्धि होती है। चिकित्सा इह परमें सुख देनेवाली है। किं बहुना ? चिकित्सासे उत्कृष्ट कोई तप नही हैं ॥ ३२ ॥
चिकित्सा के उद्देश तस्माचिकित्सा न च काममोहा- । बचार्थलोभानच मित्ररागात ।। न शत्रुरीषान्नच बंधुबुध्या । न चान्यइत्यन्यभनोविकारात् ।। ३३ ॥ नचैव सत्कारनिमित्ततो वा । नचात्मनस्सद्यशसे विधेयम् ॥ कारुण्यबुध्या परलोकहेतो ।
कमेक्षयाथे विदधीत विद्वान ॥ ३४ ॥ भावार्थ:----इसलिये वैद्यको उचित है कि वह काम ओर मोहबुद्विसे चिकित्सा कभी नहीं करें । द्रव्यके लोभसे, मित्रानुरागसे, शत्रुरागसे, बधुवुद्धिसे, एवं अन्य मनोविकारोंसे युक्त होकर वह चिकित्सामें प्रवृत्त नहीं हो । आदरसत्कारकी इच्छासे, अपने यशके लिये भी वह चिकित्सा नहीं करें । केवल रोगियों के प्रति दयाभावले एवं परटोक साधनके लिये एवं कर्मक्षय होने के लिये विद्वान् वैद्य चिकित्सा करें ॥ ३३.३४ ।।
निरीह चिकिताका फल। एवं कृता सर्वफलप्रसिद्धि । स्वयं विदध्यादिद सा चिकित्सा ।।
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