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________________ ( १९६ ) कल्याणकारके भावार्थः – हृदयका ग्राह (कोई पकड़कर खींचता हो ऐसे मालूम होना ) इंद्रियों के विषय में लोलुपता होना, निद्रा नहीं आना, शरीरमें कंप ( कांपना ) अतिशूल, मलावरोध, खांसी, हिचकी, खास होना, मुखके सूखना, ये सब बातप्रमेह होनेवाले उपद्रव हैं ॥ २४ ॥ प्रमेहका असाध्य लक्षण । वसाघृतक्षौद्रनिभं त्रवंति ये । मदांधगंधेभजलप्रवाहवत् ॥ सृजंति ये मूत्रमजस्रमाविलं । समन्विता ये कथितैरुपद्रवैः ॥ २५ ॥ गुदांसहत्पृष्ठशिरो लोदरस्समजाभिः पिटकाभिरन्विताः ॥ पिबति ये स्वप्नगतास्तरंति ये नदीसमुद्रादिषु तोयमायत्तम् ||२६|| यथोक्तदोषानुगतैरुपद्रवै- स्समन्विता ये मनुवत्रंत्यपि ॥ विशीर्णगात्रा मनुजाः प्रमेहिणोऽचिराम्रियते न च तानुपाचरेत् ||२७|| भावार्थ:- वसा, वृत, मधुके समान व मदोन्मत्त हाथ के गण्डस्थलसे स्राव होनेवाले मदजलके सम्मान जिनका गंदला मूत्र सदा बह रहा हो एवं उपर्युक्त उपद्रवोंसे सहित हो, गुअस ( कंधा ) हृदय, पीठ, शिर, कंठ, पेट, व मर्मस्थान में जिनको पिटिकायें उत्पन्न हुई हों, एवं स्वप्न में नदी समुद्र इत्यादिको तैरते हों या उनका पानी पीते हों, पूर्वोक्त दोषानुसार उपद्रवोंसे युक्त हों, मधुके समान मूत्र भी निकलता हो, जिनका शरीर अत्यंत शीर्ण ( शिथिल ) हो चुका हो ऐसे प्रमेही रोगी जल्दी मरजाते है । उनकी चिकित्सा करना व्यर्थ है ।। २५ ।। २६ ।। २७ ॥ प्रमेहचिकित्सा | सदा त्रिदोषाकृतिलक्षणेक्षित- प्रमेहरूपाण्यधिगम्य यत्नतः ॥ भिषक्तदुद्वेकवशादशेषवित् क्रियां विदध्यादखिलमहिणां ।। २८ ।। भावार्थ:- सर्व विषयको जानने वाले, वैद्यको उचित है कि वह उपर्युक्त प्रकार से त्रिशेषोंसे उत्पन्न प्रमेहका लक्षण व आकरको दोष देकके अनुसार, प्रयत्नपूर्वक जानकर, संपूर्ण प्रहियोंकी चिकित्सा करें ॥ २० ॥ surjer चिसाः । पै 1 कृशस्तथा स्थूल इति प्रमेहिणौ । स्वजन्मतोऽपथ्यनिमित्ततोऽपि यौ || तयोः कृशस्याधिकपुष्टिवर्धनैः । क्रियां प्रकुर्यादपरस्य कर्षणैः ॥ २९ ॥ भावार्थ:- जन्मसे अथवा अपथ्यके सेवन से प्रमेह के रोगी दो प्रकार के होते हैं। एक कृश ( पहला ) दूसरा स्थूल [11 में वृको पुष्टि ऐ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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