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... महामयाधिकारः।
भी मुख्य रूपसे यहां सवर्णक व शीघ्रविदाहिके भेदसे दो ही प्रकारसें वर्णन किया है । उठती हुई 'जो त्वचामें खूब दाह उत्पन्न करती हो, फफोलेसे युक्त हो, जिसका वर्ण काला व लाल हो, तृषा व मोह दाह को करती हों जो अत्यंत कष्टमय हो उसे अलजी कहते हैं.। पृष्ठ उदरस्थानोमें से किसी एक स्थान में होकर उत्पन्ना, अत्यंत तोदनसे( सुई चभने जैसी पीडा ) युक्त, पीडा व गाढ बाब से युक्त नीलवर्णवाली, इसे विनता कहते है। . तीन दोषोंसे पिटिकाओंकी उत्पत्ति होती है । इसलिये इसमें तीनों दोषो में कहे गये लक्षण गुण, आदि पाये जाते हैं ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥ २० ॥
पिटिकाओंके अन्वर्थ नाम । शराविकाद्याः प्रथितार्थनामकास्सविद्रधिश्चापि भवेत्सविदाधिः ॥ सरक्तविस्फोटवृतालजी मता-प्युपद्रवान् दोषकृतान् ब्रवीभ्यहम् ।। २१ ॥
भावार्थ:-उपर्युक्त शराविका आदि पिटिकायें अन्वर्थ नामोंसे युक्त हैं। अर्थात नामके अनुसार आकृति गुण आदि पाये जाते हैं । जैसे कि जो विद्रधि के समान है, उसका नाम विद्रधि हैं । तथा, जो लाल स्फोटों [ फफोले जैसे ] से युक्त हो उस का नाम अलजी है । अब हम दोषोंसे उत्पन्न उपद्रवोंको कहते हैं ।। २१ ॥
कफप्रेमहका उपद्रव ।। अरोचकाजीर्णकफप्रसेकता-पीनसालस्यमथातिनिद्राः॥ समक्षिकासर्पणमास्यपिच्छिलं । कफप्रमेहेषु भवेत्युपद्रवाः ॥ २२॥
अर्थ:----अरुचि, अजीर्ण, कफगिरना, पीनस ( नाकके रोगविशेष ) आलस्य, अतिनिद्रा, रोगीके ऊपर मक्खी बैठना, मुखमें लिवलिवाहट होना, इत्यादि कफज प्रमेहमें उपद्रव होते हैं ॥ २२ ॥
..... पैतिक प्रमहके उपद्रव । समेमुष्कक्षतवस्तितोदनं । विदाहकृच्छ्लपिपासिकाम्लिकम् । ज्वरातिमूीमदपाण्डुरोगताः । सपित्तमेहेषु भवत्युपद्रवाः ॥ २३ ॥
भावार्थ:-लिंग, अण्डकोश में जखम होना व बस्तिस्थान ( मूत्राशय ) में दर्द को करनेवाले शूल अर्थात् पैत्तिक शूल होना, विदाह, पिपासा, ( प्यास ) मुखमें खट्टा मालुम होना, ज्वर, मूर्छा, मद, पाण्डुरोग, ये सब पित्तप्रमेहमें होनेवाले उपद्रव हैं ॥ २३ ॥
. वातिकप्रमेहके उपद्रव । सहृद्ग्रहं लौल्यमनिद्रया सह । प्रकम्पशूलातिपुरीषबंधनम् । ' प्रकासाहकाश्वसनास्यशोषण । स्वालमेहेषु भन्युपञ्चाः ॥२४॥
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