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________________ रसरसायनसिध्यधिकारः। ( ६७९) अपि च सारितसद्गुलिका पुरः ॥ क्रमत एव चतुर्गुणसारता ॥ गुलिक एव च सारणमार्गतो ।। बिदितचारुभिदैरपि जीर्णयेत् ॥ ३६ ॥ स खलु सिद्धरसस्समसारितः । पुनरपीह चतुर्गुणसारतः ॥ क्रमयुतरतिमर्दनपाचन- । भवति तत्प्रतिसारितनामकः ॥ ३७ ॥ अयमपि प्रतिसारित सदस- । स्समगुणोत्तमहेतुमुसारितः ॥ विदितसिद्धरसे तु चतुर्गुणे । क्रमविजीर्णरसो ानुसारितः ॥ ३८ ॥ भावार्थ:---रस बृहण विधि में सब से पहिले संघालोण, हरताल, मुखतानी मट्टी, धान्य का भुसा इन के रसों के साथ अच्छी तरह पीस कर गाढा करें व उस में दाख व मूसाकानी को मिलावें । . बाद में बाहर और अंदर से अभ्रक कल्क लिप्त दाख वं मूसाकानी से युक्त उस रस को एक पात्र में डाल कर एवं ढककर अग्निमुख में रखना चाहिये। ताड, भूसा, कण्डे, तुषभ्रमर, करीषभ्रमर, अण्डभ्रमर, महाकरीषभ्रमर इन लकडियों के रूक्ष अग्नि से अग्निप्रयोग करना चाहिए । तदनंतर सारणा संस्कार करना चाहिए । सारणा के लिए योग्य तेल के साथ समान प्रमाण में सुवर्ण दव को भी डालना चाहिये । फिर सारणा संस्कार कर गोली तैयार करनी चाहिए। क्रम से फिर उसे चतुर्गुण रूप से सारण करना चाहिये एवं शास्त्रोक्त क्रम से उस गोली को फोड कर जीणं करना चाहिए । इस प्रकार अच्छी तरह सारित सिद्ध स को क्रम क्रम से मर्दन, पाचनादिक क्रियावों के साथ चतुर्गुण सारण करने से वह प्रतिसारित नामक रस होता है । ... उस प्रतिसारित रस को भी पुनः चतुर्गुण सिद्ध रस में सारण कर जीर्ण करें तो वह और भी उत्तम गुणविशिष्ट हो जाता है । उसे अनुसारित रस कहते हैं। ३२ । ३३ । ३४ | ३५ । ३६ । ३७ । ३८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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