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________________ 'कल्याणकारके - wwwwwww.msrAA/ रस प्रयोगफल पदि रसस्समसारनियोजितो भवति तद्दशमांश स वेदकः । त्रिगुणसारवरः शतवेदको दशशतं रससारयुता रसः ।। ३० ॥ भावार्थ-----रस के समान प्रमाण में लोणी का ग्रहण करें तोस का दशमांशमें फळ का अनुभव होता है। यदि रस की अपेक्षा लोणी त्रिगुण प्रमाणमें हो तो सौगुणा अधिक लाभका अनुभव होगा । एवं लोणी के रसके साथ रसका उपयोग करें तो हजार गुणा अधिक लाभ पहुंचता है ।। ३० ॥ रस→हणविधिः अथ रसं परिबृहयते ध्रुवं सततमग्निसहं कुरु सर्वथा । प्रकटतापनवासनकासनैर्जिनमतक्रमतो हि यथक्रमात् ॥ ३१ ॥ भावार्थ- उस रस को सदा तापन, कासन व वासनक्रिया के द्वारा अग्निकर्म का प्रयोग करना चाहिए जिस से वह रस बहुत समृद्ध होता है ॥ ३१॥ लवणतालकमेघसुमृत्तिका- 1 तुषमषीशरवारणसद्रसैः ॥ अतिविपेष्य घनांतरितान्तरा- । मपि विधाय सुगोस्तनमूषिकाम् ॥ ३२ ॥ बहिरिहांतरमभ्रककल्कस- । प्रतिविलेपितगोस्तनमूषिकां ॥ निहितचारुरसं धन संप्रति । पिहितमग्निमुखे बहुवासयेत् ॥ ३३ ॥ मषितुषोत्ककरीषकरीषकै- । स्तुपकरीपयुतभ्रमररणु- ॥ भ्रमरकैश्च करीषयुतमहा- ।। भ्रमरकैरपि रूक्षितवन्हिना ॥ ३४ ॥ इति यथा ऋयतोऽग्निसह रसं । प्रकटसारणया परिबंहितैः ॥ विहितसारणतैलयुतैः रसैः ।। क्षिप समं कनकद्रवतां गतम् ॥ ३५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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