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रसरसायन सिष्यधिकारः ।
मध्ये सुवर्णवरमाक्षिकधातुचूर्ण | दद्यात्समं रसवरस्य सुवर्णमेव ॥ पश्चान्महाग्निपरिविद्धमतीव शुद्धं । बीजोत्तरं तदपि जीर्णय पादमम् ॥ २७ ॥ तं स्वच्छपिच्छिलरसं पटुशुद्धमुग्र- । न्मृषागतं सुविहितान्यसुभाजनस्थम् ॥ भूमौ निधाय पिहितं तु वितस्तिमात्रं । तस्योपरि प्रतिदिनं विदधीत चाग्निम् ॥ २८ ॥ मासं निरंतरमिहाग्निनिभावितं तं ।
चोदृत्य पूजितमशेषसु पूजनायैः ॥ संशुद्धताम्रवरतारदलं मलिप- । मेघेरुनादर समर्दित सद्रसेंद्रम् ॥ २९ ॥
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भावार्थ:- तीक्ष्ण ओह को चूर्ण कर के उस में उतना ही सुवर्ण माक्षिक के चूर्ण मिलाकर उसे गरम कांजी से अच्छीतरह धोत्रे और कई बार कांजी के साथ अच्छी तरह पका । उस के बाद उसे गोमूत्र तक्र ( छाछ ) तिलका तैल, द्विरज, इन्द्र ( इन्द्र जो ) इन के काथ से शुद्ध करना चाहिये । अर्थात् उस को गरम करके उक्त द्रव में बुझाते जाये । [ इस प्रकार करने से उस की
चूर्ण में । पारा के
उतना ही ) उत्तम भोजन [ ग्रास ]
क्रम से जीर्ण करना
शुद्धि होती है ] | इस प्रकार शोधित तीक्ष्ण लोह के सुवर्ण चूर्ण और छह गुना सुवर्णमाक्षिक चूर्ण मिलावे भूत इस तीक्ष्णचूर्ण को थोडा २ पारा में डालते हुए गर्भदुति के चाहिये । इस प्रकार जीर्ण करते बखत बीच में पारा के समान सुवर्णमाक्षिक चूर्ण और उतना ही सुवर्ण चूर्ण डालकर पश्चात् तीव्र अग्नि से जलावे । पश्चात् उस में शुद्ध बीज को चतुर्थांश या अर्थाश डालकर जीर्ण करें । इस प्रकार के सरकार से वह स्वच्छ व पिलपिलेरूप का रस बन जाता है | उसे शुद्ध करके ( धोकर ) भूषा में रखें । उस मूषा को किसी अन्य योग्य पात्र में रख कर संधिबंधन करे । फिर उसे एक बालिश्त [१२ अंगुल] प्रमाण गहरा गड्ढा खोदकर उसमें रखें और उस पर मिट्टी डालकर बंद कर के ऊपर प्रतिदिन आग जलाये । इस प्रकार एक महीने तक बराबर आग जला कर बाद में उस से निकाल कर उस संस्कृत रसेंद्र [ पारा ] की सम्पूर्ण सामग्री विधिसे पूजा करनी चाहिये । पश्चात उसे मेघनाद के रस से वोट कर उस से शुद्ध तान्त्रा व चांदी के पत्र का लेपन करे || इस प्रयोग से सोच बन सकता है ] ॥ २५ २६ २७ २८|२९॥ १ यद्ध इति पाठांतरे ॥
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