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(.६७६)
कल्याणकारकै
द्विज्ञाय खल्वषदी प्रणिधाय धीमान् ॥ सौवर्णचूर्णसहितां परिमर्य सम्य- । क्संयोजयेद्रसवरेण सहैकवारम् ॥ २३ ॥ द्वंद्वोरुमंढकविधानत एव सम्य- ।
समर्थ सोष्णवरकांजिकया सुधीतं ।। सूक्ष्मांबरद्विगुणितावयवमृतं तं- ।
संस्वदयत्कथितचारुबिडैश्च सार्धम् ॥ २४ ॥ भावार्थ:--पील। अभ्रक, पटाल क, पटुबत्रक उन में सेंधानमक, टङ्कणक्षार, सोंट मिरच व पीपल मिलाकर पुनर्नवा ( विषखपरा ) के रस से अच्छीतरह घोटना चाहिये । फिर इस को एक पोटली बनाकर उसे कांजी में [ दोलायंत्रा द्वारा ] पकावे । जब वह अच्छीतरह पक जावे तो उसे एक मूषा में डाल कर और मूषा को अग्निपर रखकर फूंकनी से खूब फंको । इसे फंकते २ जब मूषा में रखा हुआ पदार्थ द्रवरूप [पतला ] हो जाय. तो पश्चात् उस द्रव को पत्थर के खरल में डालकर उस में सोने का चर्ण मिलाकर अच्छीताह मर्दन करे । इस के बाद इस में उत्तम पारा डालकर एक ही दफे अच्छीतरह मिला । फिर इसे द्वंदमेढकविधान से भले प्रकार घोटकर गरम कांजी से धोकर पतले दोहरे कपडे से छान ले और शास्त्र में कहे हुए. श्रेष्ठ विट के साथ स्वेदन करें अर्थात् बाफ देवें ।। २२-२३-२४ ।।।
तीक्ष्णं निचूर्ण्य वरमाक्षिकधातुचूर्ण- । व्यामिश्रमुष्णवरकांजिकया सुधौतं ॥ उत्क्वाथ्य साधु बहुशः परिशोधयेच्च । गोमूत्रतऋतिलजद्विरेजेंद्रतायः ॥ २५ ॥ एतत्कनकनकचर्णयुतं सुक्षिणं । माक्षीकचूर्णमपि षड्गुणमत्र दद्यात् ॥ भास्वद्रसेंद्रवरभोजनमल्पमा गर्भद्रुतिकमन एवं सुजीर्णय च ॥ २६ ॥
१ यहांपर द्वंदमेढक विधानका अर्थ समझमें नहीं आना, शायद दिह मेलक विधान सकता है. वैद्य विचार करें ।
२ निरव इति पाठांतरं ॥ ३ प्रति इति पाठांतरं ।।
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