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________________ (६८०) कल्याणकारके सारणाफल. प्रथमसारणया शतरंजिका दशशतं प्रतिसारणया रसः । शतसहस्रमरं प्रतिरंजयेत्यधिक रंजनयाप्य नुसारितः ॥ ३९ ॥ भावार्थ:-सिद्ध रस के ऊपर सारणा संस्कार पहिले २ करने पर सौ गुणा अधिक शाप.मान् हो जाता है । उस सारणा पर पुनः प्रतिसारण संस्कार करने पर हजार गुणा अधिक फल होता है एवं अनुसारण संस्कार से लाख गुणा अधिक फल होता है ॥ ३९ ॥ मणिभिरप्यतिरंजितसद्रसः । स्पृशति भेदति वेधकरः परः ॥ तदधिकं परिकर्मविधानमाश्वखिलमत्र यथाक्रमता ब्रुवे ॥ ४० ॥ भावार्थ:--रस के ऊपर रत्नों का संस्कार करें तो भी वह अत्यंत गुणविशिष्ट हो जाता है। उस के स्पर्शन से रत्नादिक फूटते हैं। उस रत्नसंस्कार के विधान अब विधि प्रकार शीघ्र कहेंगे ।। ४.० ॥ : स्तनरसेन विषाणमुराग्रज । परिविमर्थ सुकल्कविलेपनैः ॥ कठिनवज्रमपि स्फुटति स्फुटं । स्फुटविपाकवशान्मणयोऽथ किम् ॥४१॥ का भावार्थ:--मेंढासिंगी व कपूकचरी को स्तनदुग्ध के साथ मर्दन कर अच्छे कल्कों का लेपन करनेपर कठिन से कठिन वज्र भी फूटता है। बाकी अन्य रत्नों के विषय में तो क्या कहना ? || ४१ ।।. - रस संस्कारफल. स्वेदात्तीवरसो भवत्यतितरं समर्दनानिमलो । स्याल्लोहाबलवान्मुजीर्णतरसरशुद्धातिबद्धस्सदा ॥ गर्भद्रावणयकतामुपगतः संरंजनाद्नकः । सम्यक्सारणया प्रयोगवशतो व्याप्नोति संक्रामति ॥४२॥ भावार्थ:---रस को स्वेदन संस्कार करने से उस में तीव्रता आती है। मर्दन करने से वह मलरहित होता है । धातुवों के संस्कार से वह बलवान होता है। जीर्ण संस्कार से बह शुद्ध होता है । बंधनप्रयोग करने से सिद्ध होता है। गर्भद्रावण संस्कार सवह एकमेक होकर मिल जाता है। रंजन प्रयोग से वह भी राजत होता है। सारणाप्रयोग से अच्छी तरह शरीर में व्याप्त होता है ॥४२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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