________________
उ
रसरसायनसिध्यधिकारः ।
सिद्धरस माहात्म्य. एवं प्रोक्तमहाष्टकर्मभिरलं बद्धो रसी जीववख्यातस्तत्परिकर्ममुक्तसमये शुद्धस्स्वयं सिद्धवत् ॥ ज्ञात्वा जीवसमानतामपि रसे देवोपमस्सर्वदा ।
संचित्योप्याणिमादिभिः प्रकटितैरुद्यद्गुणौधैरसदा ॥ ४३ ॥ भावार्थ:---इस प्रकार पारदरस को सिद्ध करने के आट महासंस्कार कहे गये। इन के प्रयोग से वह रप्त सिद्धों के समान शुद्ध होता है। एवं स्वयं वह रस जीव के समान ही होता है अर्थात् उस में प्रबल शक्ति आती है । इतना ही नहीं. उसे अणिमादि ऐश्वर्यो से युक्त साक्षात् देव के सामन ही समझना चाहिए । अर्थात् वह रस अनेक प्रकार से सातिशय फलयुक्त होता है ॥ ४३ ॥
पारदस्तंभन. साक्षीशरवारिणी सहचरी पाठा सकाकादनी । तेषां पंचरसे पलायति सदा प्रोद्यदतिस्तंभिकाः ॥ ताः स्युकल्ककषायतैलयुतसंस्वेदेस्सदा पारद- ..
स्तिष्ठत्यग्निमुखे सहस्रधमनै/तोऽपि शस्त्रादिभिः ॥ ४४ ॥ .. ..भावार्थ:-सरहटीगण्डनी, सरपता, पीली कटसरैया, पाठा व काकादिनी इन के रस में वह पारद इधर उधर न जाकर अच्छी तरह स्तंभित होता है । उन के कल्क व कषाय से युक्त तेल से संस्वेदन प्रयोग करने पर पारद अत्यंत तीक्ष्ण अग्नि में भी बराबर स्थिर हो कर ठहरता है ॥ ४४ ॥
रस संक्रमण...... . कांता मेघनिनादिकाश्रवणिकातांबूलसंक्षीरिणीत्येताः पंचरसस्य लोहनिचयैः संक्रामिकास्सर्वदा ॥ तासां सदसकल्कमिश्रितपयस्तैस्संप्रतापात्स्वयं । ।
संतः पत्रदलपलेपवशतो व्याप्नोति बिंबेष्वपि ॥ ४५ ॥ भावार्थ-मोथा, पलाश, गोरखमुण्डी, तांबूल व दूधिया वृक्ष इन पांच वृक्षों के रस सदा धातु भेदों के संक्रामक है। इन के साथ कल्क मिलाकर पारा मिलावें और पत्ते में लेपन कर दर्पण में लगा तो माने आग व्याप्त हप्ता है ।। ४५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org