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________________ अन्नपानविधिः । अनुपानविधानका उपसंहार : केषांचिन्मधुरे भवत्यतितराकांक्षाम्ल संसेवना- 1 दम्लेवान्यतरातिसेवनतया वांछा भवेदादरात् ॥ यद्यद्यस्य हितं यदेव रुचिकृद्यद्यस्य सात्म्यादिकं । तत्तत्सर्वमिहानुपान विधिना योज्य भिपरिभस्सदा ॥ ४२ ॥ 1 भावार्थ:- किसी किसीको अम्लरस के अधिक सेवनले मीठे रसमें अधिक इच्छा रहती है। किसी को अम्लके अतिरिक्त किसी रस का अधिक सेवनसे खट्टे रस की इच्छा होती है । इसी तरह किसी को कुछ, अन्य को कुछ रस सेवन की चाह होती है । इसलिये विद्वान वैद्यको उचित है कि वे जिनको जिस रसकी इच्छा हो और जो हितकर हो और उनकी प्रकृतिके लिये अनुकूल हो उन सबको अनुपान विधि प्रयोग करें ॥ ४२ ॥ भोजन के पश्चात् विधेय विधि । पश्चाद्धौतकरौ प्रमथ्य सलिलं दद्यात्सुचप्रदं । प्रोद्यद्दृष्टिकरं विरूपविविधव्याधिप्रणाशावहं ॥ वक्त्रं पद्मसमं भवेत्प्रतिदिनं तेनैव संरक्षितं । 'वक्रव्यगतिलातिकालकमलानीलीप्रणाशावहम् ॥ ४३ ॥ Jain Education International (८१) भावार्थ:-- भोजन के अनंतर हाथों को धोकर, उन्ही को परस्पर थोडा मलकर और उन्ही से थोडा जल आखों में डालना चाहिये अर्थात् जलयुक्त हाथों से आंखका स्पर्श करना चाहिये । इस से, आखों को हित होता है। तेजी आती है और नाना प्रकारके विरुद्ध अक्षिरोग दूर हो जाते है । इसी तरह, हाथों को मल कर प्रतिदिन, मुख का स्पर्श करे अर्थात्, थोडा सा मलें तो मुख कमल के समान कांतियुक्त होता है, तथा मुखगत व्यंग, तिलकालक, नीली आदि अनेक रोग दूर हो जाते हैं ॥ ४३ ॥ तत्पश्चाद्विधेय विधि। भुक्त्वाचम्य कषायतिक्तकटुकैः श्लेष्मामु नुदेत् । किंचिद्गर्वितवास्थितः पदशतं संक्रम्य शय्यातले ॥ वामं पार्श्वमथ प्रपीय शनकैः पूर्व शयीत क्षणं । व्यायामादिविवर्जितो द्रवतरासेवी निषण्णो भवेत् ॥ ४४ ॥ भावार्थ:- इस प्रकार, भोजन करनेके पश्चात्, अच्छीतरह कुरला करके कषाय १- भुक्ते राजवत् आसीत । ११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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