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________________ बालग्रहभूत तंत्राधिकारः । ( ४४७ ) I [सिकुडन] होता है । पित्त के प्रकोप से ४. ज्वर, ५. दाह, ६. खून का आना और ७ अतिसार [ दस्त का लगना ] होता है । कफ के प्रकोप से ८. अरुचि ९. का १० गले में जखम और ११. शिर में भारीपना होता है । इन उपरोक्त ग्यारह लक्षसे अथवा किसी पांच या छह लक्षणों से पीडित क्षयरोगी को यश को चाहने वाला er छोड देवें अर्थात् ऐसा होने पर रोग असाध्य हो जाता है ॥ १० ॥ ११ ॥ राजयक्ष्मा असाध्यलक्षण. बहुतरमशनं यः क्षीयमाणोऽतिर्भुक्ते । चरणजठरगुह्योद्भूतशोफोऽतिसारी । यमरवरनारी कौतुकासक्तचित्तो । व्रजति स निरपेक्षः क्षिप्रमेव क्षयार्तः ॥ १२ ॥ भावार्थं जो रोगी अत्यंत क्षीण होते जानेपर भी बहुतसा भोजन करता है ( अथवा बहुत ज्यादा खानेपर भी, क्षीण ही होता जाता है) और पाद, जठर (पेट) व गुप्तेद्रियमें शोफ जिसे हुआ है, अतिसारते पीडित हैं, समझना चाहिये वह यमके द्वारा अपहरण की हुई सुंदर स्त्रियोंमे आसक्त चित्तवाला और इस लोकसे निरपेक्ष होकर वहां जल्दी पहुंच जाता हैं ॥ १२ ॥ राजयक्ष्माकी चिकित्सा. Jain Education International अभिहित सविशेषैर्बृहणद्रव्यसिद्धै- । रसमुदितघृतवगैः स्निग्धदेहं क्षयति । मृदुतरगुणयुक्तैः छर्दनैः सद्विरेकै- । रपि मृदुशिरसस्संशोधनैश्शोधयेत्तम् ॥ १३ ॥ भावार्थ- पूर्व में कथित बृंहण (बलदायक ) द्रव्योंसे सिद्ध घृतसे क्षयरोगीके शरीर को स्निग्ध करना चाहिये । पश्चात् मृदुगुणयुक्त औषधियोंसे मृदुछर्दन, रोगका शिर भारी हो तो मृदुशिरोविरेचन करना चाहिये व मृदुविरेचन भी करना चाहिये ॥ १३ ॥ राजयक्ष्मीको भोजन मधुरगुणविशेषाशेषशालीन्यवान्वा । बहुविधकृत भक्षालक्ष्यगोधूमसिद्धान् । घृतगुडबहुदुग्वै भोजयेन्मुद्रयूपैः । फलगणयुतमृरिष्टश कैस्सुपुष्टः ॥ १४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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