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________________ ( 29 ) - - चिकित्सकः सत्यपरः सुधीरः क्षमन्वितः हस्तलघुत्वयुक्तः । स्वयंकृती दृष्टमहाप्रयोगः समस्तशास्त्रार्थविदप्रमादी । अ. ७. श्लो. ३८ अर्थात् वैद्य सत्यनिष्ठ, धीर, क्षमासम्पन्न, हस्तलाघवयुक्त, स्वयं औषधि तैयार करने में समर्थ, बडे २ रोगोंपर किए गए प्रयोगोंको देखा हुआ, संपूर्ण शास्त्रोंको जानने वाला व आलस्यरहित होना चाहिए । वैद्यको उचित है कि वह रोगियों को अपने पुत्रोंके समान मानकर उनकी चिकित्सा करें। तभी वह सफल वैद्य हो सकता है। इस विषय को प्रथमाध्याय में आचार्य ने इस प्रकार विवेचन किया है कि ग्रंथ के अर्थ को जाननेवाला, बुद्धिमान, अन्य आयुर्वेदकारों के मत का भी अभ्यासी, अच्छी तरह बडे २ प्रयोगों को करने में चतुर, बहुत से गुरुओंसे अनुभव प्राप्त, ऐसा वैद्य विद्वानोंके लिए भी आदरणीय होता है । वैद्य दो प्रकार के होते हैं । एक शास्त्र वैद्य व दूसरा क्रियावैध । जो केवल वैद्यक शास्त्रोंका अध्ययन किया हो उसे शास्त्रवैद्य कहते हैं । जो केवल चिकित्सा विषय में ही प्रवीण हो उसे क्रियावैद्य कहते हैं। परंतु दोनों बातों में प्रवीणता को पाना यह विशिष्ट महत्वसूचक है। वही उत्तम वैद्य है । जिस प्रकार किसी मनुष्य का एक पैर बांध देने से वह नहीं चल सकता है, उसी प्रकार दोनोंमें से एक विषय में प्रवीण वैद्य रोगोंकी चिकित्सा ठीक तौरसे नहीं कर सकता है । उसके लिए दोनों विषयों में निष्णात होने की जरूरत है । ___ लोकमें कितने ही अज्ञानी वैद्य भी चिकित्सा करते हैं । कभी २ अंधे के हाथ में बटेरके समान उस में उन्हें सफलता भी होती है । परंतु वह प्रशंसनीय नहीं है । क्यों कि वे स्वयं यह नहीं समझते कि औषधि का उपयोग किस प्रकार करना चाहिए। और किस रोगपर किस प्रयोग का उपयोग करना चाहिए । प्रकृतरोगका कारण क्या है। उनकी उपशांति किस प्रयोग से हुई यह जानने में भी वे असमर्थ रहते हैं। कभी ऐसे अज्ञानी वैद्योंकी कृपासे रोगियोंको अकालमें ही इहलोकसे प्रस्थान करना पडता है। इसलिए शास्त्रकारोंने कहा कि अज्ञानी वैद्य यदि लोभ व स्वार्थवश किसीकी चिकित्सा करता है तो वह रोगियोंकों मारता है। ऐसे मूर्ख वैद्योंपर राजावोंको नियंत्रण करना चाहिए । इस संबंध में ग्रंथकारका कहना है कि---- अज्ञानतो वाप्यातिलोभमोहादशास्त्रविद्यः कुरुते चिकित्सा । सर्वानसौ मारयतीह जन्तून् क्षितीश्वरैरत्र निवारणीयः ॥ अ. ७ श्लोक ४९ अज्ञानी के द्वारा प्रयुक्त अमृततुल्य-औषधि भी विष व शस्त्र के समान होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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