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स्वास्थ्यके भेद. आचार्यने स्वास्थ्यके भेद दो प्रकार से बतलाया है एक पारमार्थिकस्वास्थ्य आर दूसरा व्यावहारिकस्वास्थ्य । ज्ञानावरणादि अष्टकर्मों के नाश से उत्पन्न अविनश्वर अतींद्रिय व अद्वितीय आत्मीयसुखको पारमार्थिक स्वास्थ्य कहते हैं । देह स्थित सप्तधातु, अग्नि व वातपित्तादिक दोषोंमें समता रहना, इन्द्रियोंमें प्रसन्नता व मनमें आनंद रहना एवंच शरीर निरोग रहना इसे व्यावहारिक-स्वास्थ्य कहते हैं।
स्वास्थ्पके बिगडने के लिये आवार्यने असातावेदनीय कर्मको मुख्य बतलाया है। और वात, पित्त व कफ में विषमता आदि को बाह्य कारणमें ग्रहण किया है। इसी प्रकार रोगके शांत होने में भी मुख्यकारण असाता वेदनीय कर्मकी उदीरणा व साताका उदय एवं धर्मसेवन आदि हैं बाह्यकारण तद्रोगयोग्य चिकित्सा व द्रव्यक्षेत्र काल भावकी अनुकूलता आदि हैं।
चिकित्साका हेतु. वैद्य को उचित है कि वह निस्पृह होकर चिकित्सा करें । इस विषय में आचार्य ने बहुत अच्छी तरह खुलासा किया है।
___सातवें अध्यायमें इस विषय को स्पष्ट करते हुए आचार्यने लिखा है कि चिकित्सा पापोंकों नाश करनेवाली है । चिकित्सासे धर्म की वृद्धि होती है । चिकित्सासे इहलोक व परलोकमें सुख मिलता है। चिकित्सासे कोई अधिक तप नहीं है। इसलिए चिकित्सा को कोई काम, मोह व लोभवश होकर न करें। और न चिकिसामें कोई प्रकारसे मित्रताका अनुराग होना चाहिए । और न शत्रुताके रोष रखकर ही चिकित्सा करनी चाहिए । बंधुवुद्धि से, सत्कार के निमित्त से भी चिकित्सा नहीं होनी चाहिए । अर्थात् चिकित्सकको अपने मनमें कोई भी प्रकारका विकार नहीं रहना चाहिए। किंतु वह रोगियोंके प्रति करुणाबुद्धिसे व अपने कौके क्षयके लिए चिकित्सा करें। इस प्रकार निस्पृह व समीचीन विचारोंसे की गई चिकित्सा कभी व्यर्थ नहीं होती उस वैद्य को अवश्य ही हरतरहसे सफलता प्राप्त होती है। जैसे किसान यदि परिश्रम पूर्वक खेती करता है तो उसका फल व्यर्थ नहीं होता, उसी प्रकार परिश्रम पूर्वक किये हुए उद्योगमें भी वैद्यको अवश्य अनेक फल मिलते है ।
चिकित्सक : चिकित्सा करने वाला वैद्य कैसा होना चाहिए इस विषयपर ग्रंथकारने जो प्रतिपादन किया है वह प्रत्येक वैद्योंको ध्यानमें रग्बने लायक है । उनका कहना है कि-- ..
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