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यह वेदके समान है । इसलिए इस शास्त्र का अपरनाम आयुर्वेद के नामसे भी कहा जाता है।
वैयकग्रंथके अध्ययनाधिकारी. वद्यकशास्त्र का अभ्यास कौन कर सकता है इस संबंध में लिखते हुए आचार्य ने आज्ञा दी है कि -
राजन्यविश्वरवैश्यकुलेषु कश्चित् । धीमाननिधचरितः कुशलो विनतिः।। - प्रातः गुरुं समुपसृत्य यदा तु पृच्छत् । सोयं भवेदमलसंयमशास्त्रभागी ॥
अ. १. श्लोक २१. जो ब्राम्हण क्षत्रिय व वैश्य इन तीन उच्च वर्गों में से किसी एक वर्ण का हो, निर्दोष आचरण वाला हो, कुशल व स्वभावतः विनयी हो एवं बुद्धिमान हो वह वैद्यक शास्त्रके अध्ययनकी उत्कट इच्छासे प्रातःकाल में गुरु के निकट जाकर प्रार्थना करें, वही इस शास्त्र के अध्ययनका अधिकारी हो सकता है ।
गुरूका कर्तव्य. इस संबन्धमें आचार्य स्पष्ट करते हैं कि वह उस शिष्यके जातिकुल व गुण आदि का परिचय कर लेवें एवं अच्छीतरह उस की परीक्षा कर लेवें । तदनंतर श्रीभग. वान् अर्हत के समक्ष उस शिष्य को अनेक व्रत देवें । तदनंतर उक्त शिष्य को अध्ययन प्रारंभ करावें । इस से प्राचीन काल में शिष्योंको विद्याध्ययनकी परिपाटी कैसी थी ? उस संस्कारके प्रभाव से वे किस श्रेणी के विद्वान् बनते थे ? इत्यादि प्रश्नोंका उत्तर सहज मिल सकता है।
वैद्यशास्त्रके उपदेशका प्रयोजन. लोकोपकारकरणार्थमिदं हि शास्त्रं । शास्त्रप्रयोजनमपि द्विविधं यथावत् । स्वस्थस्य रक्षणमथामयमोक्षणं च । संक्षेपतस्सकळमेव निरूप्यतेऽत्र ॥
अ. १ श्लो. २४ वैद्यक शास्त्र की रचना लोक को उपकार करनेके लिए होती है । इस शास्त्र का प्रयोजन भी दो प्रकार का है । स्वस्थपुरुषोंका स्वास्थ्यरक्षण व रोगियों का रोग मोक्षण करना ही इस का उद्देश्य है । उन सब बातों को यहां इस ग्रंथमें संक्षेप से वर्णन किया गया है।
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