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इस प्रकार आगेके श्लोकोंसे आचार्य ने प्रकट किया है । इसलिए वैद्य को उचित है कि वह गुरूपदेश से शास्त्र का अध्ययन करें। तदनंतर बडे २ वैद्योंके निकट रहकर प्रयोगों को देखकर अनुभव करें । तब ही कहीं जाकर वह स्वयं चिकित्सा करने को समर्थ हो सकता है।
रोगियोंका कर्तव्य. रोगियोंके कर्तव्य को बतलाते हुए आचार्य ने सातवें अध्याय में लिखा है कि रोंगी जिस प्रकार अपने माता, पिता, पुत्र, मित्र कलत्र पर विश्वास करता हो, उसी प्रकार वैद्य के प्रति भी विश्वास करें। वैद्यसे किसी विषय को छिपाये नहीं। मायाचार व वंचना नहीं करें ऐसा होनेपर ही उसका रोगमोक्षण हो सकता है।
इस प्रकार और भी बहुतसे जानने लायक विषयोंको आचार्यने इस खूबीके साथ वर्णन किया है जिसका स्वाद समग्र ग्रंथको प्रकरणबद्धरूपसे बांचनेसे ही आसकता है।
एक प्रति में हमें औषधि लेते समय प्रयोग करनेवाले मंत्र का भी उलेख मिला है। उसे पाठकोंके उपयोग के लिए यहां उद्धृत कर देते हैं ।
रोगाकांतेऽपि मे देहे औषधं सारमामृतम् । वैद्यस्सौषधिप्राप्तो महर्षिरिव विश्रुतः ॥ रोगान्विते भूरितरां शरीरे सिद्धौषधं मे परमामृतं स्तात् । आचैव वैद्यो ममरोगहारी सर्वोषधिमाप्त इवर्षिरस्तु ॥ रोगान्विते भूरितरां शरीरे दिव्यौषधं मे परमामृतं स्तात् । सौषधर्घिमुनये च निरामयाय श्रीमजिनाय जितजन्मरुजे नमास्तु ॥
: जैन वैद्यक ग्रंथकर्ता. प्रकृत ग्रंथके देखनेसे मालुम होता है कि अन्य जैनाचार्योने वैधक ग्रंथकी जो रचना की है व उस विषयमें उनका अपूर्व पण्डित्य था । ग्रंथकारने प्रकृत प्रथमें जगह जगहपर अन्य आचार्यों के वैद्यक संबंधी मतको उद्धृतकर अपना विचार प्रकट किया है। उन अंधकारोंमे श्रुतकीर्ति, कुमारसेन, वीरसेन, पूज्यपाद पात्रस्वामी (पात्रकेसरी) सिद्धसेनं दशरथगुरु, मेघनाद, सिंहनाद, समंतभद्र एवं जटाचार्य आदि आचार्योके नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । इसमे स्पष्ट है कि इन आचार्योने भी वैद्यक ग्रंथकी रचना की है। परंतु खेद है कि वे ग्रंथ अभी उपलब्ध नहीं होते हैं। जिन ग्रंथोंके आधारसे उमादित्याचार्यने प्रकृत संदर ग्रंथका निर्माण किया है उसके मूलाधार न मालुम कितने महत्व
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