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कल्याणकारके
भावार्थ:- इस प्रकार प्रतिपादित यह उत्तरतंत्र अत्यंत उत्तम हैं । अनेक पदार्थों के विस्तृत कथन के साथ युक्त है । संपूर्ण दोषों से रहित है । पहिले सर्वज्ञ जिनेंद्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित है [ उसीके आधारसे ] अब मुनींद्र उग्रादित्याचार्य नामके विद्वान महागुरु के द्वारा प्रणीत है ॥ ५३ ॥
सर्वाधिक मागधीयविलसद्भाषाविशेषोज्ज्वलात् । प्राणावाय महागमादवितथं संगृह्य संक्षेपतः ॥ उग्रादित्यगुरुरुर्गुरु गुणैरुद्रासि सौख्यास्पदं । शास्त्रं संस्कृतभाषया रचितवानित्येष भेदस्तयोः ॥ ५४ ॥
भावार्थ:-- सर्व अर्थ को प्रतिपादन करनेवाली सर्वार्धमागधी भाषा में में अत्यंत सुंदर जो है प्राणात्राय नामक महाशास्त्र ( अंग ) उस से यधावत् संक्षेप रूप से संग्रहकर उमादित्य गुरुने उत्तम गुणों से युक्त सुख के स्थानभूत इस शास्त्र को संस्कृतभाषा में रचना की है। इन दोनों में इतना ही अंतर है ॥ ५४ ॥
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सालंकारं सुशब्द श्रवणसुखमथ प्रार्थितं स्वार्थविद्भिः । प्राणायुस्त्ववीर्यप्रकटवळकरं प्राणिनां स्वस्थहेतुम् ॥ निध्युद्भूतं विचारक्षममिति कुशलाः शास्त्रमेतद्यथावत् । कल्याणाख्यं जिनेंद्रैर्विरचितमधिगम्याशु सौख्यं लभते ।। ५५ ।।
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भावार्थ:- यह कल्याणकारक नामक शास्त्र अनेक अलंकारों से युक्त है, सुंदर" शब्दोसे प्रथित है, सुनने के लिये सुखमय है ( श्रुतिकटु नहीं है ) कुछ स्वार्थ को जाननेवालों [ आत्मज्ञानी ] की प्रार्थना से निर्मापित है, प्राणियों के प्राण, आयु, सत्त्व वीर्य, बल को उत्पन्न करनेवाला और स्वास्थ्य के कारणभूत है । पूर्वके गणधरादि महाऋषियों द्वारा प्रतिपादित महान् शास्त्र रूपी निधि से उत्पन्न है | विचार को महनेवाला अर्थात् प्रशस्त युक्तियों से युक्त है । जिनेंद्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित है ऐसे इस शास्त्र को बुद्धिमान् मनुष्य प्राप्त कर के उस के अनुकूल प्रवृत्ति करें तो शीघ्र ही सौख्य को पाते हैं ॥ ५५ ॥
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अध्यर्धद्विसहस्रकैरपि तथाशीतित्रयैस्सोत्तरे - । वृत्तैस्सचरितैरिहाधिकमहावृजिनेंद्रोदितैः ॥
प्रोक्तं शास्त्रमिदं प्रमाणनय निक्षेपैर्विचार्यार्थिन । ज्जीयात्तद्रविचंद्रतारकमलं सौख्यास्पदं प्राणिनाम् ॥५६॥
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