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________________ कल्पाधिकारः । (७०३) भावार्थ:-श्री जिनेंद्र भगवंत के द्वारा प्रतिपादित भिन्न२ महानवृत्तों (छंदस्) के द्वारा, प्रमाण नय व निक्षेपोंका विचार कर. सार्थक रूपसे दो हजार पांचसौ तेरासी महावृत्तोंसे निर्मित, सर्व प्राणियोंको सुख प्रदान करनेवाला यह शास्त्र जबतक इस लोक में सूर्य, चंद्र व नक्षत्रा रहें तबतक बराबर अटल रहे ॥ ५६ ॥ अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गवसुशास्त्रमहाबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ५७ ॥ भावार्थ:- जिस में संपूर्ण द्रव्य, रुत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिस के दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रमुखसे उत्पन्न श स्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथ में जगत्का एक मात्र हितसाधक है । इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ५७ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचितकल्याणकारकोत्तरतंत्रे नानाविकल्प कल्पनासिद्धये कल्पाधिकारः पंचमोऽध्यायः आदितः पंचविंशतितमः परिच्छेदः ॥ .. इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित. भावार्थदीपिका टीका में कल्पसिद्धाधिकार नामक . उत्तरतत्रामें पांचवां व आदिसे पच्चीसवां परिच्छेद समाप्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001938
Book TitleKalyankarak
Original Sutra AuthorUgradityacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherGovind Raoji Doshi Solapur
Publication Year1940
Total Pages908
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ayurveda, L000, & L030
File Size18 MB
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