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कल्पाधिकारः।
(७०१)
इत्येवं विविधौषधान्यलं । सत्वमतो मनुजा निषेव्य सं-॥ प्राप्नुवंति स्फुटमेव सर्वथा- ।
मुत्रिकं चतुष्कसत्फलोदयम् ॥ ५० ॥ भावार्थ:-इस प्रकार पूर्व प्रतिपादित नाना प्रकार के औषधियों को बुद्धिमान भनुष्य यथाविधि सेवन कर इस भव में तीन पुरुषार्थो को तो पाते ही हैं, लेकिन पर भव में भी धर्म अर्थ, काम मोक्ष को निश्चय से प्राप्त करते हैं ! तात्पर्य यह है औषधि के सेवन से शरीर आरोग्य युक्त व दृढ हो जाता है। उस स्वस्थ शरीर को पाकर वह यदि अच्छी तरह धर्म सेवन करें तो अवश्य ही परभव में पुरुषार्थ मिलेंगे अन्यथा नहीं ॥ ५० ॥
गंथकर्ता की प्रशस्ति. श्रीविष्णुराजपरमेश्वरमौलिमाला- । संलालितांघ्रियुगलः सकलागमज्ञः ॥ आलापनीयगुणसोन्नत सन्मुनीद्रः । .
श्रीनंदिनंदितगुरुर्गुरुरूर्जितोऽहम् ॥ ५१ ।। भावार्थ:--महाराजा श्री विष्णुराजा के मुकुट की माला से जिन के चरण युगल सुशोभित हैं अर्थात् जिन के चरण कमल में विष्णुराज नमस्कार करता है, जो सम्पूर्ण आगम के ज्ञाता हैं, प्रशंसनीय गुणों के धारी यशस्वी श्रेष्ठ मुनियों के स्वामी हैं अर्थात् आचार्य हैं ऐसे श्रीनंदि नाम से प्रसिद्ध जो महामुनि हुए हैं वे मेरे [ उग्रादित्याचार्य के ] परम गुरु हैं । उन ही से मेरा उद्धार हुआ है ॥ ५१ ॥
तस्याज्ञया विविधभेषजदानसिध्यै । सद्वैद्यवत्सलतपः परिपूरणार्थम् ॥ शास्त्रं कृतं जिनमतोदृतमेतदुद्यत् ।
कल्याणकारकमिति प्रथितं धरायाम् ॥ ५२ ॥ भावार्थः-उनकी [ गुरु की ] आज्ञासे नाना प्रकार के औषध दान की सिद्धि के लिये एवं सज्जन वैद्यों के साथ वात्सल्य प्रदर्शनरूपी तप की पूर्ति के लिये जिन मत से उद्धृत और लोक में कल्याणकारक के नाम से प्रसिद्ध इस शास्त्र को मैंने बनाया॥५२॥
इत्येतदुत्तरमनुत्तरमुत्तमज्ञैः विस्तीर्णवस्तुयुतमस्तसमस्तदोषं । माग्भाषितं जिनवरैरधुना मुनींद्रोग्रादित्यपण्डितमहागुरुभिः प्रणीतम् ॥५३॥
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