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महामयाधिकारः
असाध्य लक्षण ।
अरोचको यत्परिभग्नपार्श्व । सशोककुदयामयपीडितांगम् ॥ विरिक्तमप्याशु निपूरयतम् । विवर्जयेत्तं जठरामयार्तम् ॥ १४२ ॥
( २२१ )
भावार्थ:- जिस उदर रोगीको अरुचि अधिक हो, जिसका दोनों पार्श्व टूडेसे मालुम होते हो व सूजन से युक्त हो, विरेश्वन देनेपर भी शीघ्र पानी भर जाता हो उस रोगी को असाध्य समझकर छोडना चाहिये ॥ १४२ ॥
test fचकित्सा ।
fastriधामधुशिग्रुवल्कं । कषायकल्कं घृतमत्र पौवा ॥ विरेचयेत्तिल्वकसपषासौ । गवांबुना चापि निरूहयेत्तम् ॥ १४३ ॥
भावार्थ :-- विडानमक, बचा, मधुसेंजन, इनके कषाय व कल्कसे सिद्ध घृत को पिलाकर महोदररोगीको तिल्बक घृत प्रयोग से विरेचन कराना चाहिये एवं गोमूत्र से
मिरूह वस्ति देनी चाहिये ॥ १४३ ॥
वातोदर चिकित्सा |
महोदरं तैलविलिप्तणशु । मरुत्कृतं क्षीरदधिप्रपकैः ॥
सुशिलैस्सकरंजयुग्मै । स्सपत्रदानैरुप नाहयेत्तम् ॥ १४४ ॥
भावार्थ:: - वातज महोदर हो तो उसके पेटपर तेलका लेपनकर दूध व दहसि पकायें हुए सेंजनका जड व दोनो करंज ( करंजपूतीकरंज) के पुल्टिश एरंड आदि वातनाशकक पत्तोंके साथ पेट पर बांधनी चाहिये || १४४ ॥
सदैव संस्वदनमप्यभीक्ष्णं । महोदरे मारुतजे विधेयम् ॥ मधवशिग्रुमूले । स्सुसिद्धदुग्धादिकभोजनं च ॥ १४५ ॥
भावार्थ:- - वातज महोदरमें सदा स्वेदन ( पसीमा लामा ) भी कराना चाहिये । एं उसे सदा सोंठ, सैंधानमक, सैंजनके अडसे सिद्ध दूष आदि भोजन बाराना चाहिये ॥ १४५ ॥
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पिचोर चिकित्सा |
सपिच दुष्टोदरिणं सुमृ- । विशिटशीतोषघसाघुसिद्धम् ॥ घुसे पाय त्रिवृत्ता येथेष्टं । विरेचयेत समशर्करेण ॥ २४६ ॥
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