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... कल्याणकारके लिये पिलावे । फिर सर्व दोषोंको विचार कर उसके उपशमन के लिये तदनुकूल योग्य चिकित्सा करें ॥ ९ ॥..
. व्रणविधिमपि कुर्यान्भेदनातव्रणेषु । प्रकुपितरुधिरस्रावं जलौकाप्रपातैः । निखिलमभिहितं यदोषभैषज्यभेदात् ।
उचितमिह विदित्वा तत्प्रयोज्यं भिषाग्भिः ॥ १० ॥ भावार्थ:--मेढ़पर उत्पन्न प्रण ( शूक रोग ) में चिकित्साके विधानका भी उपयोग करें। एवं जलौंक लगाकर विकृतरक्तको निकालें । वात पित्सादिक विकारोके उपशमनके लिये जो औषधि बतलाई गई हैं उनको यहां भी दोषों के बलाबलको जानकर कुशल वैद्य प्रयोग करें ॥ १० ॥
अथ श्लीपदाधिकारः ।
श्लीपद रोग. कुपितसकलदोषयेनकेनापि वा त । द्गुणगणराचितोयं वंक्षणो दर्षिशोफः ॥ प्रभवति स तु मूलाहरमाश्रित्य पश्चात् । अवतरति यथावजानुजंघाघ्रिदेशे ॥ ११ ॥ स भवति दृढरोगः श्लीपदाख्यो नगणा- । मनुदिनमतिसम्यक्संचितांघ्रिप्रदेशे । तमपि निखिलदोषाशेषभैषज्यवंध- ।।
मचुररुधिरमोक्षायैस्सदापाचरेच्च ॥ १२ ॥ भावार्थ:--सर्व दोषोंका एक साथ उद्रेक वातपित्तकफों के एक साथ प्रकोप होनेसे, अथवा, एक २ दोषके प्रको से, अपने २ ( दोपोंके ) लक्षणोंसे सयुक्त, जांवोंकी संधि शोफ होता है । फिर वह शिश्नमूलसे जानु, जंघा व पादतक उतरजाता है। इसे श्लीपद रोग कहते हैं। यह रोग कठिन होता है । वह रोगीके पाद देशमें अच्छीतरह संचित होकर प्रतिदिन उसे पीडा देता है। समस्त दोषोंके पेशामक औषधियोंसे एवं बंधन, रक्तमोक्षण आदि विधियों के द्वारा उसकी चिकित्सा करें ॥ ११ ॥ ॥ १२ ॥
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