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क्षुद्ररोगाधिकारः।
(२८७)
त्रिकुटुकादि उपनाह। त्रिकटुलशुनहिंगगुदीलांगलीकैः । प्रतिदिनमनुलिप्तं चोष्णपत्रोपनाहः ।। उपशमनमवाप्नोत्युद्धतं श्लीपदाख्यं ।
वहलपरिबृहत्तत्प्रस्तुनं वर्जनीयम् ॥ १३ ॥ भावार्थ:--त्रिकटु, लहसन, हींग, बच, हिंगोट, कलिहारी इन औषधियोंका प्रतिदिन लेपनकर उष्ण गुणयुक्त पत्ते को उस के ऊपर बांधनेपर वह उद्रिक्त श्लीपद रोग, उमशमनको प्राप्त होता है । यदि अत्यधिक बढ़ गया हो तो उसे असाध्य समझना चाहिये ॥ १३ ॥
वल्मीकपादन तैलधृत। तिल जलवणमिरेभिरेवापधस्तैः ।। प्रशमनमिह संप्राप्नोति वल्मीकपादः ॥ स्नुहि पयसि विपकं तैलमेवं घृतं वा।
शमयति लवणान्यं पत्रबंधन सार्धम् ॥ १५ ॥ भावार्थ:---उपर्युक्त औषधियोंको तिलका तेल, सेंधालोण के साथ मिलाकर ( अथवा औषधियों के कल्क काथ से तैल सिद्ध करके ) लेपन करके ऊपर संपत्ता बांधे तो कमीकपाद उपशमन को प्राप्त होता है । अथवा थूहरके दूधमें पकाये हुए तेल या घी में सेंधालोण मिलाकर लेपन करें और पत्तेको बांधे तो भी हितकर होगा ॥ १४ ॥
वल्मीकपाद चिकित्सा। अथ च कथितवल्मीकारख्यपादं त्रिदोष-। ऋमगतविधिनोपक्रम्य तस्य व्रणेषु ।।
प्रकटतरमहासंशोधनद्रव्यासिद्धा- । ... न्यसकृदीभीहतान्यप्यत्र तैलानि दद्यात् ॥ १५॥
। भावार्थ:--उद्विक्त दोषों के अनुसार विधिपूर्वक चिकित्सा करके उसके व्रणोंको प्रसिद्ध संशोधन औषधियोंसे सिद्ध, पूर्व में अनेकवार कथित, तैलका प्रयोग करना । * चाहिये ॥ १५ ॥
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